सीरज सक्सेना

करीब चार साल बाद कन्हारपुरी में अपनी ससुराल जाना हुआ। छत्तीसगढ़ का राजनांदगांव अब कन्हारपुरी को भी अपनी सीमा में ले चुका है। यहां भी हर छोटे शहर की तरह बहुमंजिला रिहायशी घर बन रहे हैं। कन्हारपुरी में पांच छोटे-बड़े तालाब हैं। महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग स्थान निर्धारित हैं। पूरा गांव हर सुबह-शाम यहां इस जल के पास आता है। बिना डुबकी न दिन निकलता है और न सांझ होती है यहां। गांव स्वच्छ और सड़कें पक्की। जहां सड़कें हैं, वहां वाहन और उनका शोर या प्रदूषण भी। बिजली पर्याप्त है। यहां दिल्ली से सटे गाजियाबाद से बहुत बेहतर है प्रकाश व्यवस्था। ससुराल आकर चूल्हे पर पकी दाल-भात, मुनगा, मुंगोड़ी आदि का सेवन आनंददायी है।

वहां से कला और संगीत महाविद्यालय खैरागढ़ गया। मोटरसाइकिल से तीस किलोमीटर की दूरी लगभग एक घंटे में तय हुई। बढ़ईपारा, दल्ली पार करता हुआ नवांगांव पहुंचा। चित्रकार मित्र हुकुम लाल वर्मा का यहां पुश्तैनी घर है। वे वहां मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। एक ट्रैक्टर और कुछ स्त्रियां धान कूटने के लिए सपाट मैदान तैयार कर रहे थे। गांव के घरों की दीवारें दो रंगों से पुती हैं।

दिवाली के पहले की सफाई पूरे गांव में हो रही थी। खपरैल (कवेलू) की छत यहां घरों को एक अनूठा सौंदर्य प्रदान करती हैं। सरलता और उसकी चमक यहां देखने लायक है। यहां का दृश्य सम्मोहन पैदा करने वाला है। घर के ऊपर खुली छत के साथ एक कमरे में हुकुम का स्टूडियो है, दो बड़े अमूर्त चित्र उनके स्टूडियो में एक गहन यथार्थ रच रहे हैं। स्वभाव से हुकुम शांत हैं, पर उनके चित्रों में बहुत हलचल है। यहां से उनकी मोटरसाइकिल पर सवार होकर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग पहुंचे। रास्ते के दोनों ओर खेत की हरियाली के बिखराव में तरह-तरह के पक्षी अपनी लीला में मगन हैं। काला-सफेद नीलकंठ पानी के ऊपर हवा में कुछ देर ठिठक कर बड़ी अदा से शिकार कर रहा था। उसका शिकार करने का तरीका दरअसल उसका नृत्य लगता है। पक्षी प्रेमी उसके इस हवाई नृत्य के कायल हैं।

दोपहर अपने शबाब पर थी। सितंबर की तपिश में यहां की गर्मी का अनुमान लगाया जा सकता था। चित्र कला विभाग के संकाय प्रमुख शर्माजी खुद भी चित्रकार हैं। आने-जाने वाले कला विद्यार्थी वर्माजी को अभिवादन करते। वर्माजी भी यहां दो साल कला अध्यापन कर चुके हैं। पर उन्होंने नौकरी के बजाय पूरी तरह कला-कर्म करना ही उचित समझा। शर्माजी अपनी टेबल पर बिखरी फाइलों में मगन थे। चाय से उन्होंने हमारा स्वागत किया। हमें वे अपने चित्र दिखाने घर ले गए। एक कमरे में उनका स्टूडियो है। नौकरी करते हुए चित्रकारी कर पाना कितना मुश्किल है, वे हमें बताते रहे।

मूर्ति कला और छापा कला विभाग देख कर विश्वविद्यालय के पास ही छुईखदान बुन कर समिति द्वारा बने हस्त-निर्मित कपड़ों की एक छोटी दुकान पर रोचक कपड़े देखे। गमछे, तौलिया, दरी, रूमाल, धोती आदि बहुत ही उत्तम और आकर्षक लगे। दिल्ली की खादी दुकान से यहां की बुनाई सचमुच बेहतर है। कन्हारपुरी आते-आते अंधेरा हो चुका था। यहां साइकिल रिक्शा भी हैं, पर उनकी बनावट या सज्जा कुछ ऐसी है कि साइकिल रिक्शा बूढ़े लगते हैं।

राजनांदगांव में ‘नारायण टी स्टाल’ दिवंगत बिरजू रामजी (जो हबीब साहब के नया थिएटर के स्टार कलाकार थे) ने अपनी दो महीनों की छुट्टियां बिताने के लिए खोली थीं। अपनी मेहनत से उन्होंने अपने बेटे नारायण को स्नातक कराया, पर सरकारी नौकरी नहीं मिल सकी। अब नारायण (जो खुद भी बहुत अच्छे लोक गायक हैं) यह गुमटी संभालते हुए अपने दोनों बेटों को पढ़ा रहे हैं। नया थिएटर के ही स्टार कलाकार दंपति दीपक तिवारी और पूनम भी नया थिएटर छोड़ने के बाद यहीं अपना रंगकर्म कर रहे हैं। बरसों इन दोनों कलाकारों ने अपने अभिनय से देश-विदेश में धूम मचाई है। दीपक कुछ सालों से लकवे की बीमारी की वजह से थोड़े अशक्त जरूर हैं, पर उनमे रंगमंच और अभिनय को लेकर अपार उत्साह अब भी है। अपनी संस्था द्वारा वे छत्तीसगढ़ के गांव और कस्बों में लोकनाट्य प्रस्तुति करते हैं।

जब उनकी मंडली सांस्कृतिक उत्सवों के भ्रमण पर होती होती है, तो बाकी काम उनका कलाकार बेटा संभालता है। बेटे की आरंभिक नाट्य कला शिक्षा भी हबीब साहब की छाया में हुई है। पूनम की बेटी बेला भी मां की ही तरह कुशल लोक नृत्यांगना हैं। पूनम के लिए बिना नृत्य अभिनय की कल्पना करना मुश्किल है। इस यात्रा के बाद अपनी एक बात और अधिक दृढ़ हुई कि कला संस्थान, कला विद्यालय आदि कलाकार नहीं बनाते, बल्कि कलाकार अपनी कलात्मक जिद से अपनी कला, जीवन और संघर्ष रचते हैं। ससुराल से लौट कर कुछ और कलाकार होकर लौटा हूं।

 

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