प्रमोद द्विवेदी

जनसत्ता 14 अक्तूबर, 2014: वैशाली से चली उस मेट्रो में मेरे सामने एक मचलता इश्तिहार था। ‘मैनफोर्स’ कॉफी-कंडोम के साथ अपनी खास अदा से लैस सनी लियोन पर सवारियों की निगाहें टिकी थीं। जगतगति से मुक्त बूढ़ों ने सिर घुमा लिएऔर घर लौटती कामकाजी औरतों-लड़कियों ने गाफिल मुस्कान बिखेरी। एक किशोरी अपने साथी को कोहनिया कर छेड़ते हुए कह रही थी- ‘ओए देख! तेरे काम की चीज का प्रचार सनी कर रही है!’ फिर क्या था! किशोर मंडली की यह छेड़छाड़ चुहुलिया गूंज में बदल गई। खैर, उनके लिए जो एक दृश्य या पोस्टर था, मेरे लिए खबर थी। सामाजिक रूप से आपत्तिजनक मसला था क्योंकि मेट्रो जैसे सार्वजनिक, रोजमर्रा की आवाजाही के साधन पर ऐसे विज्ञापन पहले कभी नहीं देखे। अभी तक लोगों को जगाने वाले, खबरदार करने वाले ही विज्ञापन छपते थे। पर आज की तस्वीर देख कर समझ में आ गया कि मेट्रो को भी कारोबारी चाट भा गई है। या उसे लगने लगा है कि जीवन बीमा, होम लोन, बच्चों को दी जाने वाली आयरन की नीली गोली और ‘मैनफोर्स’ की उपयोगिता एक समान है।

मैंने फौरन मेट्रो में लिखे नंबर 155370 पर घंटी मारी और डिब्बे में छाए इस इठलाते विज्ञापन की वजह पूछी। जवाब मिला कि सर, यह काफी ऊपर से तय होता है। हम कुछ नहीं कर सकते। लेकिन आपकी शिकायत जरूर पहुंचा देंगे। इस शिकायत के बाद मैंने कुछ दिनों तक इंतजार किया। लेकिन ये विज्ञापन अटल रहे। बाध्य होकर दूसरीबार मैंने चेतावनी की भाषा में शिकायत दर्ज कराई और कहा कि चार दिन में ये विज्ञापन नहीं हटे तो महिला आयोगया अदालत में शिकायत की जाएगी। इस बार बात बनती नजर आई और उधर से बाकायदा एक शिकायत नंबर दिया गया और मेरा नाम-पता लेकर कार्रवाई का आश्वासन दिया गया। मैंने यह बताने से इनकार कर दिया कि मैं किस पेशे में हूं। खुद को देश का मामूली नागरिक बताया।

इस शिकायत का असर हुआ और चार दिन में कम से कम वैशाली-द्वारका और नोएडा मार्ग पर मेट्रो से कंडोम के विज्ञापन हटा दिए गए। जायजा लेने के लिए जब मैंने गुड़गांव और कुतुबमीनार तक की सैर की तो पाया कि यह कारगुजारी आधी-अधूरी हुई है। वहां सनी वैसे ही सजी बैठी थी और सवारियों की सेहत पर कोई फर्क नहीं था। मैंने फिर घंटी मारी और नाम बताते ही मेट्रो के आॅपरेटर ने कहा कि आपकी शिकायत को संजीदगी से लिया गया है और मेट्रो में अब ये इश्तिहार नहीं लगेंगे। मैंने फिर पूछताछ की। मेट्रो के ज्यादातर रूटों से ये विज्ञापन हट गए। लेकिन पूरी तरह हटे होंगे, इस पर मुझे अभी शक था। संतोष यही था कि शिकायत पर कुछ तो काम हुआ। वरना ज्यादातर महकमे शिकायती नंबर देकर सो जाते हैं।

एक दिन अप्रत्याशित रूप से मेट्रो की ओर से मुझे एक नंबर (22561231) से फोन आया और बड़ी शालीनता से पूछा गया- ‘क्या आप प्रमोद द्विवेदी हैं?’ मेरे ‘हां’ कहने पर उधर से बताया गया कि आपकी लगातार शिकायतों के बाद मेट्रो की एक उच्चस्तरीय बैठक में तय किया गया है कि आइंदा मेट्रो में ‘मैनफोर्स’ के विज्ञापन नहीं लगेंगे। विभागीय गलती की ओर ध्यान दिलाने के लिए आपका धन्यवाद…! इस धन्यवाद ज्ञापन के बाद ही आखिरकार मैंने उन्हें बताया कि एक आम नागरिक होने के अलावा मैं देश के सबसे प्रतिष्ठित अखबार से जुड़ा हूं और आप सुधार नहीं करते तो यह मामला अदालत से लेकर अखबार तक जाता।

घटना का सुखांत यही कि अब मामला निपट गया है और मेट्रो से कंडोम के इश्तिहार हट गए हैं। फिर वही शरीफाना, प्रचारात्मक विज्ञापन आ गए हैं। लेकिन इस वाकये ने मुझे आम और जागरूक आदमी की ताकत का अहसास करा दिया है। आमतौर पर लोग आसपास की गड़बड़ियां, अन्याय देख कर इस नाउम्मीदी में कोई नालिश, शिकायत नहीं करते कि इस बेगैरत व्यवस्था में कुछ भी नहीं होने वाला। खासतौर पर सरकारी महकमों में जो बेनियाजी और काहिली पसरी है, उससे लोग यह मान कर चलते हैं कि कार्रवाई की आस लगाना अपना कीमती वक्त जाया करना है। लेकिन ऐसा नहीं है। मेट्रो ने एक आम आदमी के एतराज पर जिस तरह कान धरे, उससे कहा जा सकता है कि बेइंसाफी के खिलाफ आवाज बुलंद करने की आदत समाज में सबको डालनी चाहिए। हमारी चुप्पी ने कई बार गलतियों और मनमानियों का रास्ता साफ ही किया है।

 

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