के. विक्रम राव

जनसत्ता 20 अक्तूबर, 2014: भले ही सौराष्ट्र के सींगदाने का बीया बड़ा होता हो, लखनऊ की मूंगफली खाने, साथ में सोंधा नमक फांकने का लुत्फ ही कुछ अलग है। पर गांधी मैदान (पटना) के घेरे में बिकते चीनिया बादाम का जायका बेजोड़ है। खासकर जब ततैया मिर्च के साथ चबाया जाय।
गांधी मैदान मात्र सैर-सपाटे या टहल-चुहल के लिए नहीं है। इसने इतिहास देखा है। बिहार के पत्रकार साथियों ने पिछले दिनों याद दिलाया कि चार दशक हो जाएंगे अगले माह की चार तारीख को, जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा (1974) इसी जगह से दिए गए संपूर्ण क्रांति के आह्वान का प्रथम चरण पूरा हुआ था। देश तानाशाही की ओर रेंग रहा था। युवा आंदोलन शबाब पर था। तब जेपी ने गुनगुनाया था ‘तीर पर कैसे रुकूं मैं,आज लहरों में निमंत्रण।’ फिर दिनकर की चेतावनी याद आई, ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’ उस दिन (4 नवंबर, 1974) का विशद विवरण लिखा जेपी की जनमुक्तिसंघर्ष वाहिनी से संबद्ध साथी सुशील कुमार ने: ‘आजादी के बाद देश में पहली बार ऐसा देखा गया कि आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बड़े पैमाने पर हुई। 4 नवंबर, 1974 को पटना के गांधी मैदान में घटी घटना संघर्ष के जज्बे और महिला भागीदारी का साक्षात उदाहरण है।

 

इस दिन मुख्यमंत्री (कांग्रेसी अब्दुल गफूर) सहित सभी मंत्रियों के घेराव का कार्यक्रम था, जिसका नेतृत्व खुद जेपी करने वाले थे। पूरा पटना शहर जेल बना दिया गया था। बांस-बल्लियों से सारी सड़कें घेर कर ऐसी व्यवस्था की गई थी कि एक भी व्यक्ति गांधी मैदान में प्रवेश न कर सके। अचानक चमत्कारी ढंग से बहत्तर वर्षीय जेपी गांधी मैदान में प्रवेश कर गए। देखते-देखते घेराबंदी तोड़ कर हजारों कार्यकर्ता गांधी मैदान में प्रवेश कर गए। पुलिस की गाड़ियां, यहां तक कि हेलिकॉप्टर अश्रुगैस के गोले बरसाने लगे। इस विकट स्थिति में जेपी की जीप पर उनकी सुरक्षा में सिर्फ महिला कार्यकर्ता थीं। अश्रुगैस से उनमें से कइयों के बदन और कपड़े जल गए, लेकिन उन्होंने जेपी का साथ नहीं छोड़ा। बाद में जुलूस लेकर जेपी आयकर चौराहे तक पहुंचे। वहां घेराबंदी को तोड़ने की कोशिश करने पर उन पर सांघातिक लाठीचार्ज किया गया। लाठी का एक भरपूर वार; नानाजी देशमुख की बांह टूट गई। जेपी गिर पड़े, उन्हें चोटें आर्इं। सिर पर पगड़ी और हाथ में लाठी लिए आगे बढ़ते जेपी की वह मुद्रा अमिट बन गई। पटना के आयकर चौराहे पर उसी भंगिमा वाले जेपी की प्रतिमा लगी है।’

 

गांधी मैदान में कभी अंगरेज और अभिजात भूरे साहब हवाखोरी करते थे। चंपारण सत्याग्रह, भारत का पहला सिविल नाफरमानी का संघर्ष, शुरू करने के बाद बापू की विशाल जनसभा (जनवरी, 1918) यहां आयोजित हुई। तभी से इसका नाम गांधी मैदान पड़ा। इस क्रांति के स्मारक के तौर पर महात्मा गांधी की सबसे ऊंची (सत्तर फुट की) प्रतिमा यहीं पिछले वर्ष सोलह फरवरी को तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने स्थापित की थी।

 

इसी मैदान से मोहम्मद अली जिन्ना ने मुसलिम लीग के छब्बीसवें सालाना इजलास (26-29 दिसंबर, 1938) में कहा था कि मुसलमान अलग कौम है, अत: पाकिस्तान चाहिए। यहीं पर बैरिस्टर अब्दुल अजीज की मुसलिम इंडिपेंडेंट पार्टी ने जिन्ना की मुसलिम लीग में अपना विलय करा दिया था। जिन्ना को बिहार में मुख्यमंत्री मिल गया। पाकिस्तान को अधिक संबल, जिससे पड़ोसी बंगाल का विभाजन हुआ। पूर्वी पाकिस्तान बना। इसी गांधी मैदान में पिछले साल सत्ताईस अक्तूबर को भाजपा नेता नरेंद्र दामोदरदास मोदी अपनी संसदीय चुनावी (हुंकार) रैली को संबोधित करने आए थे। उस दिन यहां आठ बम फटे थे। छह लोग मरे, पचासी घायल हुए। इंडियन मुजाहिद््दीन की हरकत थी। तीन लाख का मजमा था। इस विस्फोट पर हुई प्रतिक्रिया ने नीतीश कुमार और लालू यादव को हिला दिया, हरा दिया।

 

मुसलिम लीग के इजलास के एक दशक बाद (1948) आजाद भारत में गांधी मैदान में विशाल जनसैलाब उमड़ा, जिसे प्रथम भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल केएम करियप्पा के साथ नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संबोधित किया था। तब गर्दनीबाग स्थित पटना हाईस्कूल में क्लास बीच में छोड़ कर मैं अपने मित्रों की टोली के साथ गांधी मैदान पहुंचा। पांचवीं का छात्र था। पिताजी (स्वतंत्रता सेनानी स्व के. रामाराव) दैनिक सर्चलाइट (अब हिंदुस्तान टाइम्स) के संपादक थे। वहां तेलुगूभाषी जनरल करियप्पा का ‘हिंदुस्तानी’ भाषण सुना: ‘अब अंगरेज चले गए। हम भी मुफ्त, तुम भी मुफ्त।’ तब उलझन में पड़े नेहरू ने सुधारा और कहा ‘आजाद हुए’। अहिंदीभाषी फौजी ने शब्दकोश में पढ़ा था कि ‘फ्री’ का मतलब मुफ्त होता है। अगर गांधी मैदान को जुबां होती तो इस अनूदित शब्द पर जरूर खिलखिला पड़ता।

 

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