अजेय कुमार

जनसत्ता 9 अक्तूबर, 2014: रिश्ते में वे मेरे जीजा नहीं लगते थे, लेकिन पिता के जीजा होने के कारण घर में हम सब भी उन्हें ‘जीजाजी’ ही बुलाते थे। उनकी पत्नी का देहांत लगभग दो वर्ष पहले हो गया था और उनका एकमात्र शादीशुदा बेटा कई वर्ष पहले अपने परिवार सहित अमेरिका में बस गया था। वह फोन पर महीने में एकाध बार उनका हाल पूछ लेता था। अलबत्ता उनके पोते का फोन अक्सर उन्हें आता था। अमेरिका में अपने मां-पिता की अनुपस्थिति में वह अपने दादा से खूब बतियाता और जीजाजी बहुत प्रफुल्लित महसूस करते। उनके आखिरी दिनों में मैं ही उनके यहां कभी-कभार उनकी खैर-खबर लेने आता-जाता रहा। वृद्धावस्था के कारण डॉक्टर उन्हें घर पर ही देखते और पूछते कि ‘बेटा कहां है’ तो वे मेरी तरफ इशारा कर देते। एक दिन पता चला कि उनकी तबीयत अचानक ज्यादा खराब हो गई। मैं उनके घर पहुंचा तो उनके पड़ोसी खन्ना साहब ने बताया कि उन्होंने डॉक्टर को बुलवाया था। डॉक्टर कह गए हैं कि वे कुछ दिनों के ही मेहमान हैं। बेहतर हो कि इनके बेटे को अमेरिका से बुलवा लिया जाए।

मैंने अमेरिका फोन लगाया तो उनके पोते ने उठाया। उसने अंगरेजी में मुझसे कहा कि डैडी अभी सो रहे हैं। मैंने उसे अपने डैडी को जगाने के लिए कहा तो कुछ देर बाद जीजाजी के बेटे ने अनमने ढंग से बात की। मैंने उसे बताया कि डॉक्टर की राय में उसके पिता के पास अब ज्यादा समय नहीं बचा है, इसलिए उसे फौरन आ जाना चाहिए। बेटे ने मुझसे डॉक्टर का फोन नंबर मांगा। मैंने कारण पूछा तो उसका जवाब था कि कहीं उसका आना फिजूल न चला जाए। मैंने गुस्से में उससे कहा कि डॉक्टर गारंटी से यह नहीं कह सकता कि कोई व्यक्ति कब इस दुनिया को छोड़ जाएगा। खैर, दो दिन के बाद जीजाजी का बेटा यहां आ गया। संयोग से तब मैं वहीं था। उसने पिता के पांव छुए और मुझसे मुखातिब होकर बोला- ‘ये तो ठीक-ठाक लग रहे हैं!’ मैंने कहा कि डॉक्टर ने दवा बदल दी, जिससे इन्हें पहले से आराम है।

उनके बेटे को लगा जैसे उसके साथ धोखा हुआ है। जीजाजी ने अभी अस्सी पार नहीं किया था, फिर भी पिता की मौत का इंतजार बेटे को भारी पड़ रहा था। अपनी नौकरी की असुरक्षा का बहाना बना कर बेटा पांच दिनों में ही अमेरिका लौट गया। उसके जाने के कुछ दिन बाद जब मैं उनके घर पहुंचा तो वे लगभग रोने लगे। मैंने पूछा तो बताने लगे- ‘मैं थक गया!’ उन्होंने आगे कहा कि उसने घर की सभी आलमारियों को खोल कर देखा और खोज कर वह मां के सारे जेवरात ले गया। फिर उसने बैंकों से कई फॉर्म मंगवा कर मेरे सभी पासबुक, फिक्स डिपॉजिट आदि में वारिस की जगह अपना नाम लिखवाया। मैं तो हस्ताक्षर करते-करते ही थक गया!’

डॉक्टर द्वारा बदली हुई दवा ने उनकी सेहत में जो सुधार किया था, बेटे के व्यवहार ने उस पर पानी फेर दिया। वे अपने बेटे के बचपन की कई कहानियां सुनाते। ‘मुझे कभी-कभी लगता है कि बेटे को ऊंची शिक्षा देकर मैंने गलती तो नहीं की। दरअसल, उसकी मां कहती थी कि पढ़ाई पर कंजूसी न बरतो, इसलिए मैंने उसे आइआइटी, चेन्नई भेजा। मेरे लिए उसका खर्च उठाना मुश्किल था। तुम्हारी बुआ का इलाज भी चल रहा था।’ फिर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनके घर की सारी किताबें ले जाऊं। मैंने कारण पूछा तो वे बोले- ‘वह तो उन्हें रद्दी में बेच देगा। तुम्हें जो ठीक लगे, तुम रख लेना, बाकी किसी लाइब्रेरी को दे देना।’

जिस दिन का इंतजार बेटा कर रहा था, आखिरकार वह दिन आ गया। मैंने उसे अमेरिका में फोन लगाया तो उसी ने उठाया। मेरी सूचनाएं उसने चुपचाप सुनीं और सीधे बोला- ‘अंकल, आप क्या अंतिम संस्कार गाजीपुर में स्थित श्मशान घाट पर कर सकते हैं?’ मैंने पूछा- ‘क्यों?’ उसने जवाब दिया- ‘गाजीपुर शवदाह स्थल पर कैमरे की सुविधा है, जिससे शव-दहन का पूरा घटनाक्रम मैं यहां घर बैठे देख सकता हूं। मेरा बेटा जरूर जिद करेगा अपने दादा के अंतिम दर्शन के लिए। पर मैं उसे समझा दूंगा। आप तो जानते ही हैं कि किराया बहुत बढ़ गया है। और फिर इंडिया आए मुझे कुछ महीने ही हुए हैं। वे कैमरा लगाने का ज्यादा पैसा नहीं लेते।’ गाजीपुर शवदाह स्थल पर जीजाजी का अंतिम संस्कार उनके बेटे की मर्जी के अनुसार किया गया। कैमरे का यह उपयोग मैंने पहली बार देखा और अपने भविष्य के बारे में सोचने लगा!

 

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