शीतला सिंह
जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: समाजवादी पार्टी के लखनऊ राष्ट्रीय सम्मेलन में वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद आजम खां ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी झाड़ू लगाने का अभियान चला कर दलितों की रोजी-रोटी छीनने का प्रयत्न कर रहे हैं। प्रश्न इस बात का नहीं कि वे मोदी को अपना राजनीतिक शत्रु मान कर हमला करें और उस संबंध में क्या तर्क करें, बल्कि यह है कि उनके तर्क क्या हों और समाजवादी दृष्टि से अगर उनकी परिभाषा की जाए तो वे कितने स्वीकार्य या अस्वीकार्य हो सकते हैं। क्या सफाई का पट््टा केवल दलितों के नाम है? वे और उनकी आने वाली पीढ़ियां जिंदगी भर इससे मुक्त न हों, अगर दूसरे इसे करना चाहें तो उन पर रोजी-रोटी छीनने का आरोप लगे? सफाई मजदूर के रूप में जो लोग यह कार्य कर रहे हैं, उनमें से अधिकतर अपने को वाल्मीकि बताते हैं, लेकिन रामकथा लिखने वाले ऋषि वाल्मीकि कोई सफाई करने वाले नहीं, बल्कि ऐसे विद्वान थे, जिनकी प्रतिष्ठा युगों बाद आज भी है।
जब समाजवादी समाज की रचना होगी तब भी क्या सफाई का कार्य दलितों का पुश्तैनी पेशा मान कर यह काम उन्हीं को सौंप दिया जाएगा? संविधान में जिस समता के सिद्धांत का वरण किया गया है, यह उसके अनुरूप नहीं होगा। दलितों और आदिवासियों को आरक्षण की सुविधा दी गई है, उसका लक्ष्य भी उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाना और उन पेशों और कार्यों का समापन करना है जिनके कारण उन्हें दलित और निकृष्ट माना जाता है। इसलिए उनके बाल-बच्चों में भी शिक्षा और ज्ञान का विस्तार होना चाहिए। इस रूप में अगर वे थोड़ा पीछे भी हों तो उन्हें उच्च सरकारी सेवाओं के लिए चयन में वरीयता मिलनी चाहिए। इस प्रकार सफाई के पेशे को दलितों के लिए ही सीमित मानना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
गांधीजी चाहते थे कि यह काम अन्य लोगों को भी स्वीकार करना चाहिए, इसलिए अपनी पत्नी कस्तूरबा को शौचालय साफ करने का जिम्मा सौंपा था। लेकिन आंबेडकर और गांधीजी में इस प्रश्न पर मतभेद था। जिन कारणों से कुछ जातियों को दलित माना जाता है, उसे बनाए रखने का औचित्य क्या है? इसे समाप्त होना ही चाहिए। आंबेडकर का कहना था कि गांधीजी दलित के घर पैदा होने की इच्छा तो प्रकट करते हैं, लेकिन इस घृणित प्रथा में बदलाव के लिए तैयार क्यों नहीं। उनका तर्क था कि सफाई वह कार्य है, जिसे किसी जाति विशेष के लिए आरक्षित करना कतई उचित नहीं है। गांधीजी के उस जाति में जन्म लेने की इच्छा का यही अर्थ निकाला जाएगा कि वे इस पुरानी परंपरा की रक्षा क्यों करना चाहते हैं।
दलित नेताओं का यह भी आरोप है कि वे राजसत्ता की लड़ाई में पराजितों की श्रेणी में हैं, उन्हें अपमानित करने और नीचा दिखाने के लिए ही उनसे वे काम लिए जाते थे, जिसे उच्च वर्ग के लोग करना पसंद नहीं करते थे और फिर इतिहास के ये पराजित उन पेशों के नाम से ही पहचाने गए और बाद में यही पहचान जातियों में बदल गई। इसी प्रकार आदिवासी भी पराजित होने के बाद हमलों से बचने के लिए दूरस्थ और सीमांत क्षेत्रों में पहुंच गए थे, वे जीवन निर्वाह के लिए प्राकृतिक साधनों और वन्यजीवन व्यवस्था को स्वीकार करना मजबूरी था। इन स्थितियों में परिवर्तन होना चाहिए।
जहां तक नरेंद्र मोदी का संबंध है, उनके खिलाफ बहुत कुछ कहा जा सकता है और कहा भी जा रहा है कि आखिर वे मूल रूप से किसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्या वे देश के मुट््ठीभर पूंजीपतियों के वर्चस्व की स्थापना के लिए ही सचेष्ट नहीं हैं। मुख्यमंत्री के रूप में उनके द्वारा किए गए समस्त कार्य और निर्णय क्या प्रशंसनीय हैं, जिसमें गोधरा कांड के बाद हुए दंगे और उस पर नियंत्रण न करने के आरोप से क्या उन्हें पूरी तरह मुक्त किया जा सकता है? मोदी समाज की जिस भावी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं, क्या वह सर्व कल्याणकारी कही जा सकती है? गरीबी और अमीरी का अंतर कम करने की दिशा में वह कितनी सहायक हो सकती है? संघ परिवार जिसका वे अपने को कार्यकर्ता बताते हैं, उसका इतिहास क्या सर्वधर्म समभाव जैसी संवैधानिक व्यवस्था का पालन करने वाला है। लेकिन यहां तो आजम खां साहब पर उल्टा आरोप यह है कि वे दलितों को भविष्य में भी पुरानी स्थिति में ही रखना चाहते हैं और उनसे सफाई जैसे कार्य का दायित्व निभाने की अपेक्षा करते हैं, जिसमें गंदगी करने वाला श्रेष्ठ और उसे साफ करने वाला निकृष्ट हो जाता है। समाजवाद को जाति आधारित व्यवस्था और अन्याय का समर्थक नहीं माना जाता। यह वास्तव में सामंती सोच है, जिसके लिए समाजवादी मंच उपयुक्त नहीं है। जातियों की सर्वोच्चता और निकृष्टता वास्तव में लोकतंत्र के विपरीत अवधारणा है, इसे समाप्त होना ही चाहिए।
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