शुभू पटवा

जनसत्ता 14 नवंबर, 2014: बच्चों के लिए सोचना और काम करना जितना जरूरी है, उतना ही जटिल भी। लेकिन हमारे समाज की मनीषा ने नहीं मालूम क्यों, बच्चों के लिए गंभीरता से नहीं सोचा। बाल-मन पर समग्र रूप से चिंतन-मनन और क्रियाशील रहने वालों में गिजुभाई (गिरिजाशंकर बधेका) प्रमुख हैं। उन्होंने बच्चों के शिक्षण और उनके साथ होने वाले बर्ताव पर न केवल लिखा है, बल्कि प्रयोग करके सिद्ध करने की कोशिश की है कि बच्चों के साथ बड़ों का कैसा व्यवहार होना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का बच्चों के प्रति लगाव जगजाहिर है। लेकिन सच यह है कि हमारे यहां बचपन अब तक उपेक्षित ही रहा है।

2011 की जनगणना के आधार पर छह वर्ष तक के बच्चों की आबादी पंद्रह करोड़ सत्तासी लाख नवासी हजार दो सौ सत्तासी मानी गई थी। यह संख्या कुल आबादी का 13.16 फीसद है। ग्रामीण समुदाय और सर्वथा असहाय वर्ग को एक बार छोड़ दें और नगरीय, उच्च, मध्यम और उच्च अल्प आय वर्ग को ही देखें तो हमें लगेगा कि इस वर्ग के बच्चों पर जो प्रभाव अभी से पड़ने लगे हैं, वे उनके मानस पर क्या असर छोड़ रहे हैं और उनके भविष्य की दशा किस तरह की होेने वाली है! इसके लिए शिक्षा प्रबंधन के साथ-साथ बच्चों के अभिभावकगण भी उत्तरदायी हैं। हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियां और हमारा ढांचागत विकास भी इसके लिए जिम्मेदार है।

इन हालात के लिए हमें आज की लुभावनी तकनीक और बाजार पर गौर करना चाहिए। खिलौनों की दुकानें आजकल किस तरह के खिलौनों से अटी पड़ी हैं? कोई बच्चा जब उन्हें देख कर लेने को मचलता है, तब विचारवान माता-पिता का विवेक भी धरा रह जाता है। आर्थिक तौर पर थोड़े से ठीक-ठाक परिवार तो महंगे खिलौने खरीदने में जरा भी नहीं झिझकते। अनेक घर ऐसे खिलौनों से भरे मिल सकते हैं जो बच्चों के मन-बहलाव के साथ उनमें हिंसा, विभेद और वैमनस्य के बीज भी बोते हैं। उनके प्रति माता-पिता या अभिभावक, कोई भी सजग नहीं हैं। शिक्षा और बाल मनोविज्ञान को जानने-समझने वाले कुछ विचारशील लोग इन स्थितियों के प्रति सचेत करते हैं। लेकिन नीति-निर्धारकों का ध्यान उन बातों को ओर नहीं जाता। यही वजह है कि खिलौनों के बाजार बेधड़क नित-नए साजो-सामान के साथ सजते रहते हैं। बाजार इस तरह के खिलौनों से अटे पड़े ही हैं, खाने-पीने की वैसी सामग्रियों की भी वहां भरमार है जो बच्चों के लिए हानिकर हो सकती हैं।

इसके अलावा, बच्चे अब घर से बाहर हमउम्र बच्चों के साथ खेल के मैदान या समूह में खेलने में रुचि नहीं रख रहे। कभी एक किशोर या बच्चा स्कूल से घर आने के बाद जब फिर घर से बाहर निकलता था तो उसके लिए सबसे ज्यादा आकर्षण वे खेल और संगी-साथी होते थे, जिन पर न कुछ खर्च करने की जरूरत होती और न किसी औपचारिक प्रबंधन की। तब सब कुछ सहज होता था और यहीं उनमें समूह और सामाजिकता का बीज पड़ जाता था। आज माहौल के बदलाव ने बच्चों को एकाकी बना डाला है और बचपन खो गया है।

सवाल है कि क्या इसके लिए माता-पिता उत्तरदायी नहीं हैं? बच्चों के लिए ‘वीडियो गेम्स’ जुटा कर माता-पिता मानने लगे हैं कि वे एक बड़ी जहमत से मुक्त हो गए हैं। बच्चे उनमें इतने डूब जाते हैं कि शेष दुनिया का कोई मानी उनके लिए बचता ही नहीं। थोड़े संपन्न परिवारों और महंगे निजी स्कूलों में बच्चों को कंप्यूटर शिक्षण के दूसरे लाभ मिलें या नहीं, कंप्यूटर के खेलों में वे दक्ष हो जाते हैं। जो माता-पिता अपने कामकाज में लगातार व्यस्त रहते हैं, वे नहीं देख पाते कि उनका बच्चा कैसे समय गुजार रहा है।

कई अध्ययन बताते हैं कि ऐसे किशोर-किशोरियां भिन्न-भिन्न बीमारियों और हिंसक मनोदशाओं से ग्रस्त हो जाते हैं। यही नहीं, वीडियो गेम की दुकानें अब जुआघर बन रही हैं। जो माता-पिता अपनी स्वतंत्रता के लिए बच्चों के प्रति इस तरह बेफिक्र हो जाते हैं, उन्हें यह सोचना जरूरी है कि आखिरकार अपने दायित्वों से भागने के साथ वे समाज का भी कितना बड़ा अहित कर रहे हैं। जिस सामाजिकता की उम्मीद बचपन में ही की जाती रही है, ऐसे हालात में वह नष्ट हो रही है और एक तरह की घृणा और गैर-बराबरी बढ़ रही है।

हमें मानना होगा कि ‘बचपन की सामाजिकता’ की बात केवल बच्चों तक सीमित न रह कर इसका व्यापक असर और दायरा दिखाई देना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि समाज के विचारशील लोग उन सब बातों पर गहन चिंतन करें जो हमारे भविष्य का आधार कही-मानी जाती हैं। इसके लिए शिक्षा के क्षेत्र में बाल-शिक्षाविदों से लेकर समाजकर्मियों को भी इन पक्षों पर विचार करना चाहिए।

 

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