वे हमारे मित्र थे और उम्र में मुझसे काफी बडेÞ थे। कुछ समय पहले नब्बे साल की उम्र में उनका निधन हो गया। शोक जताने उनके घर गया तो उनके लड़कों ने बताया कि एक दिन पहले उन्होंने मुझे याद किया था। वे हमारे शहर हांसी से आठ-दस किलोमीटर दूर एक गांव में रहते थे और किसानी के काम में लगे थे। 1980 के आसपास उनसे जान-पहचान हुई। वे अपने पुराने ट्रैक्टर की मरम्मत के लिए शहर में जिस मैकेनिक के यहां आते थे, वह हमारे एक समाजवादी मित्र की कार्यशाला थी। वहां बैठ कर हम लोग घंटों देश, समाज या राजनीति पर चर्चा करते। हरियाणा में समाज और राजनीति में भ्रष्टाचार पर केंद्रित एक कहावत प्रसिद्ध हो गई थी कि ‘रिश्वत लेते पकड़े गए, रिश्वत देकर छूट गए।’ हम सभी सार्वजनिक क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार को अपने देश या समाज के लिए कलंक बताते। वे मित्र भी बताते कि कैसे उन्होंने और उनके लड़के ने ड्राइविंग लाइसेंस ‘ले-देकर’ बनवा लिया। वे अन्य कई कार्य बिना समय गंवाए करवा लेते हैं, जैसे पटवारी आदि से संबंधित काम जो किसानों के मुख्य कामों में से एक है।

वे समय-समय पर हमारी बहसों में शामिल होते रहते। वे लगभग आठ-दस एकड़ जमीन के किसान थे और थोड़े सामंती सोच के भी थे। लेकिन हमारे समाजवादी और साम्यवादी सोच के कायल भी होते। 1980 के आसपास मैं स्नातकोत्तर कर अपने घरेलू व्यवसाय में लग गया था। तब नौजवानी में हम भी जोशीले समाजवादी और साम्यवादी थे और देश और समाज बदलने के उपक्रम में शिद्दत से लगे थे। इसी बीच एक दुखद घटना हमारे उस मित्र के यहां हो गई। हम अपने ट्रैक्टर मैकेनिक मित्र के साथ दुख जताने उनके गांव गए। पता चला कि उनका चौदह-पंद्रह वर्षीय पौत्र एक वाहन की चपेट में आने से हादसे का शिकार हो गया। थोड़ी देर बैठने के बाद सब कहने लगे कि ‘होनी को कौन टाल सकता है’, ‘बस इतने ही सांस लिखे थे लिखने वाले ने…’! और भी न जाने क्या-क्या…!

कुल मिला कर वही भाग्यवाद। ऐसी स्थिति में किसी बहस का माहौल नहीं होता। भारी मन से हम वहां से चले आए। कुछ दिनों बाद जब वे मिले तो हमने उन्हें ढांढ़स बंधाते हुए हाल-चाल पूछा। फिर अपने तरीके से उन्हें समझाया कि कैसे इस घूसखोर और बेईमान व्यवस्था ने हमें जकड़ा हुआ है, जिसके लालच और लापरवाही के शिकार हम होते रहते हैं और अपनी तकलीफों को किस्मत का लिखा कह कर अगली घटना के लिए खुद को उसे सौंप देते हैं। जरूरत इस सोच को बदलने की है। हम ‘होनी-अनहोनी’ जैसे शब्द-जाल बुनते हुए आगे बढ़ जाते हैं और मूल समस्या से दूर चले जाते हैं। इसके बाद वे मित्र मेरे प्रशंसक हो गए। यह मुझे तब पता चला जब हरियाणा के विधानसभा चुनाव हुए। एक उम्मीदवार मेरे जानकार थे और मुझे उन्हें वोट देना था। उन्होंने कहा कि ‘आप अमुक गांव में उस व्यक्ति के पास जाकर मुझे वोट देने के लिए कहिए। वे आपके मित्र हैं और उनका कहना है कि हम तो उनके कहने पर ही अपना वोट डालेंगे।’ मुझे उस मित्र के पास जाना पड़ा। मित्र ने सिर्फ इतना कहा कि अब तो मैं अपने जीते-जी उसे ही वोट दूंगा, जिसे आप कहेंगे।

उसके बाद वे उम्रदराज होते गए, शहर आना भी कम होता गया और हर चुनाव में मैं उनसे मिलने जाता रहा। बातचीत में वे मुझे देश की समाजवादी और साम्यवादी सरकारों को लेकर उलाहना देते। केंद्र में या राज्यों में लाल, हरे, नीले झंडे वाली तिरंगी-दुरंगी सरकारें बदलती रहीं, लेकिन नहीं बदला तो आम किसान, मजदूर और अवाम की हालत! वे मुझसे प्रश्न और प्रतिप्रश्न भी करते जो उनका अधिकार था, क्योंकि वे मेरे दिखाए सपनों पर वोट भी दे रहे थे।

सच कहूं तो पिछले दस-पंद्रह बरसों से चुनावी राजनीति में आ रहे पतन, धन-बल के बढ़ते असर, जातीय या धार्मिक उन्मादों के ध्रुवीकरणों के चलते उनके पास चुनाव चर्चा के लिए जाना और उन्हें कोई राय देना मेरे लिए अब उतना आसान नहीं रह गया था। मैं दरअसल उनका कर्जदार होता जा रहा था। सोच रहा था हमारे देश के नेता इतना भारी कर्ज इस देश की जनता को कैसे चुकाएंगे झूठे वादे करते-करते। उनके लड़के ने मुझे बताया कि उनके पिताजी ने उन्हें पत्नी सहित वोट मेरे कहने पर देने को कहा था। यह सुन कर मेरी आंखें कुछ नम-सी हो गर्इं। मुझे ऐसा लगा कि ‘होनी-अनहोनी’ पर एक धुंधलका भर साफ करने के एवज में मरहूम बुजुर्ग दोस्त ने मुझे मेरे सामाजिक दायित्व को पूरा करते रहने का अहसास कराया है। मेरे सामने रोज-रोज व्यवस्था की मार से मरते अनगिन लोग हैं, जो उसे ‘होनी-अनहोनी’ या किस्मत का लेखा मानते हैं और चुपचाप सब कुछ झेलते रहते हैं।

 

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