प्रयाग शुक्ल

जनसत्ता 10 नवंबर, 2014: मैं उन्हें बड़े मनोयोग से संगमरमरी चबूतरे पर गिरे हुए एक-एक सूखे पत्ते, धूल को बुहारते देख रहा हूं। वे अभी प्रतिमा के पीछे की ओर हैं। मैं भी उधर जाता हूं। आहट पाकर भी वे दृष्टि मेरी ओर नहीं उठाते। मैं जैसे पीठ पर लटक रहे उनके गमछे के एक हिस्से से, उनके खिचड़ी बालों से और उन्हें धारे हुए उनकी दुबली-पतली माली काया से पूछ बैठता हूं- ‘जामुन का ही है न यह पेड़!’ वह पेड़, जो चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा के ऊपर छाया किए हुए था और जिसकी डालों पर उगती हुई सूर्याभा बिखरी थी! वे मेरी ओर देखते हैं और फिर हाथ में झाड़ू पकड़े-पकड़े ही नीचे की ओर झुकते हुए कहते हैं- ‘जामुन का ही है। पुराने वाले को तो अंगरेजों ने तभी (यानी 1931 में) कटवा दिया था।’

मैं उन स्मृतियों में डूब गया जब ‘आजाद’ को शहीद हुए कोई बीस वर्ष बीत चुके थे। नौ-दस साल का रहा होऊंगा। कोलकाता से गरमी-दशहरा की छुट्टियों में गांव जाने पर कस्बे की दुकानों में, दीवारों पर चिपकी या मढ़ी, आजाद और भगत सिंह की तस्वीरें देखा करता था। आजाद की वह छवि कब से मन में बसी हुई है: मूंछों पर हाथ से ताव देते, गंभीर, हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले, पिस्तौलधारी आजाद की। वही छवि इस आदमकद प्रतिमा में भी सजीव है। मैं प्रतिमा की ओर कई कोणों से निहारता हुआ, फिर ‘मोतीलाल’ के (अपना यही नाम वे बताते हैं) के पास जा खड़ा होता हूं।

प्रतिमा को देख कर न जाने कितनी बातें दौड़ी चली आ रही हैं- आजाद की छवियों को बचपन से अब तक देखने की। आजादी की लड़ाई के इतिहास की। काकोरी कांड में उनकी भूमिका की। कई लोगों द्वारा लिखे गए उनसे संबंधित प्रसंगों-संस्मरणों की, जिनमें सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के संस्मरण शामिल हैं, जो अत्यंत युवा दिनों में आजाद के क्रांतिकारी सहयोगी रहे थे। अज्ञेय को जब मुझसे यह जानकारी मिली कि मेरे पुरखे फतेहपुर, उत्तर प्रदेश के थे, तो एक स्मिति के साथ उन्होंने कहा था, ‘हां जानता हूं, फतेहपुर को। कुछ समय वहां रहा भी हूं।’ समझते देर न लगी कि वह समय क्रांतिकारी जीवन वाला ही रहा होगा।

चौंसठ वर्षीय मोतीलाल से कुछ चर्चा करके, पार्क की बागवानी की प्रशंसा और आसपास लगे कुछ पौधों की जानकारी प्राप्त करके, मैं शहीद-स्थल के चबूतरे की कुछ सीढ़ियां उतर कर अपनी सैंडिल पहन लेता हूं। सामने पार्क की पतली सड़क पर पड़ी सीमेंटी बेंच पर बैठ जाता हूं। वहीं से फिर प्रतिमा को देखता हूं। इस बीच तीन-चार लोगों को शहीद स्थल की सीढ़ियां चढ़ते देखता हूं। उनमें से एक हैटधारी है। हाथों में कैमरा। जूता-चप्पल पहने हुए ही वे प्रतिमा के ऐन पास जाकर खड़े हो गए। सोचने लगता हूं, न सही किसी ‘पवित्रता’ बोध के कारण, साफ-सफाई की दृष्टि से ही सही, ऐसे स्थलों पर जूते-चप्पलें कहीं पीछे ही छोड़ देने चाहिए।

इस बार इलाहाबाद आना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ‘निराला व्याख्यानमाला’ और प्रयाग संग्रहालय में आयोजित ‘भारतीय कला में सौंदर्यशास्त्र’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रसंग से हुआ है। सुबह से ही यह इच्छा जोर मार रही थी कि आजाद उद्यान (इसका पूर्व नाम था अल्फे्रड पार्क) की ओर चलूं, शहीद स्थल देखूं और उद्यान में सुबह की सैर भी करूं। सो, वहां गया तो पाया कि एक मेला-सा है, सुबह की सैर करने वालों का। पर कुछ आगे जाकर यह संतुष्टि हुई कि अपेक्षाकृत वे शांत पगडंडियां भी हैं, जो एक जगह से फूट कर पार्क की विभिन्न दिशाओं में फैल जाती हैं। करीब एक-डेढ़ किलोमीटर चल चुका तो एक सज्जन से पूछा, शहीद स्थल तक पहुंचने का रास्ता। उन्होंने बड़े प्रेम से समझाया, कुछ दूर तक साथ भी आए, ताकि मैं पगडंडियों के संजाल में कहीं खो न जाऊं!

जब कई बरस पहले इस उद्यान में आया था तो इसकी सैर नहीं की थी- सीधे शहीद स्थल की ओर चला गया था। तब ‘आजाद’ की एक आवक्ष प्रतिमा (बस्ट) वहां थी। पर यह नई आदमकद प्रतिमा उनके व्यक्तित्व की समूची ऊर्जा संचारित करती हुई लगती है। अन्याय के प्रतिकार की यह ऊर्जा क्रमश: उस उदासी को धोती हुई मालूम पड़ी, जो यहां पहुंच कर आजाद नाम के व्यक्तित्व के मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में इस संसार से विदा लेने के कारण मुझमें उपजी थी। उनकी संघर्ष-गाथा अपूर्ण ही तो है। मन ही मन उसे स्मरण करते रहने की जरूरत है। वही करता हुआ कुछ देर मैं बेंच पर बैठा रहा। आजाद जैसे व्यक्तित्वों के कारण भी तो हम अपने युवा दिनों में उन बेड़ियों के टूटने की झंकार सुन सके थे, जिनकी जकड़ से संघर्ष करते हुए न जाने कितने स्त्री-पुरुषों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी।

 

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