इन दिनों सब तरफ खामोशी है। जिस शोर से परेशान होते थे, वह थम गया है। सवेरे से कभी कारों के भोेंपू, कभी पटरी पर रगड़ खाते मेट्रो के पहियों की आवाज, तो कभी पास के स्कूल से सुनाई देती प्रर्थनाएं, छुट्टी की घंटी, या खेल शिक्षक द्वारा दिए जाने वाले तरह-तरह के आदेश, मंदिर की घंटियां, कुछ भी तो सुनाई नहीं दे रहा। हर दिन रसोई में जाकर खिड़की से बाहर हसरत भरी निगाहों से देखती हूं कि कहीं कोई बच्चा झूले पर झूलता दिख जाए, बैडमिंटन खेलता या सीसॉ पर झोटे खाता अथवा स्लाइडिंग बार पर फिसलता या फुटबाल से खेलता या दौड़ता हुआ माता-पिता को छकाता, और पकड़े जाने पर जिद करता, रोता। लेकिन कहीं कोई नहीं है। यह दुनिया इतनी बेआवाज तो शायद पहले कभी नहीं थी। हालांकि यह अच्छा भी है। कोरोना की महामारी से निपटना पहली प्राथमिकता है। हर जान कीमती है। अफसोस है कि बच्चे भी इस बीमारी की जद में हैं।

जहां रहती हूं, वहां की सोसाइटी के फ्लैट्स का नक्शा इस तरह से है कि हर फ्लैट की रसोई की खिड़की पार्क की तरफ खुलती है, जहां बच्चों के लिए तरह-तरह के झूले लगे हैं। महिलाओं के लिए जिम भी है। आम दिनों में सवेरे के वक्त यहां ढेरों कबूतर दाना खाते देखे जा सकते हैं। तोतों की अठखेलियां, गुरसलों का शोरगुल, बिल्लियों की आवाजाही खूब दिखाई पड़ती है। बच्चों की किलकारियां देर तक सुनाई देती रहती हैं। झूलों पर उनकी धमाचौकड़ी देखते ही बनती है। यहां उनके खेलने की तरह-तरह की सुविधा जो मौजूद है। बच्चे अपने दोस्तों और छोटे बच्चे अपने माता-पिता के साथ सुबह-शाम यहां खूब दिखाई देते हैं। लेकिन अब पार्क सूना है। उसके पेड़-पौधों को भी मनुष्यों के लौटने का इंतजार है। हो सकता है, पार्क में लगे बेल के पेड़ ने अपने साथी चंपा के पेड़ से पूछा हो कि यह क्या हुआ! ये आदमी कहां गए! आखिर पेड़ अपने आसपास के पेड़ों से बतियाते ही हैं। उन्हें संदेश भी देते हैं। विज्ञान ऐसा कहता है।

अब मनुष्य बाहर नहीं, तो जैसे पशु-पक्षियों की गतिविधियां भी थम गई हैं। भोजन के लाले पड़े हैं, सो अलग से। बताया जा रहा है कि सड़क पर घूमते कुत्ते, गाएं सब भूख से बेहाल हैं। मनुष्य की व्यवस्था तो सरकारें कर रही हैं, इनकी कौन करे! ये तो वोट भी नहीं दे सकते। वोट दे सकते तो क्या इतनी दुर्दशा झेलते!

इन दिनों भी सवेरे-सवेरे उठ कर खिड़की पर कबूतरों के लिए बाजरा रखती हूं। जैसे ही रसोई की बत्ती जलती है, वे फड़फड़ाते आ जाते हैं। बैठकर घूम-घूम कर देखते हैं कि कितनी देर है, उनका खाना आने में। और तो और, खिड़की खोलती हूं, तो पहले की तरह डर कर उड़ते भी नहीं हैं। कुछ गुरसलें और गौरैया भी आती हैं। एक कौआ भी खिड़की पर उलटा लटक कर कांव-कांव करता खाना मांगता है। बाजरा वह खा नहीं सकता, इसलिए उसके लिए बिस्कुट, ब्रेड या रोटी का इंतजाम करना पड़ता है। और मजेदार यह है कि नन्ही-सी गौरैया अगर इस कौए की तरफ अपनी चोंच फाड़ दे, तो यह डर कर भाग जाता है। इन पंछियों के सामने ताल ठोकती, चुनौती देती एक गिलहरी भी आती है। उसके डर से पक्षी भाग जाते हैं, तो वह आराम से खाती है।

मगर इन दिनों पता नहीं, कबूतरों के अलावा कोई नहीं दिखता, न गिलहरी न गौरैया। ये कहां से दाना खाते हैं, कैसे इनकी भूख मिटती है, पता नहीं। आमतौर पर कबूतर सवेरे अपना दाना खाकर चले जाते थे। फिर अगले दिन ही आते थे। पूरे दिन खिड़की पर आसन जमा कर नहीं बैठे रहते थे। मगर आजकल उनके व्यवहार में कुछ परिवर्तन हो गया है। जब भी रसोई में जाती हूं, वे आ धमकते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है। क्या मेरे रखे दाने से उनका पेट नहीं भरता। घर में इतना बाजरा भी नहीं कि हर वक्त खिलाती रहूं। एक दिन में सारा खत्म कर दूं, तो ये अगले दिन क्या खाएंगे।

बच्चों के बैडमिंटन खेलने के लिए पार्क के बीचोबीच सीमेंट का एक बड़ा चबूतरा है। सवेरे लोग वहां इन कबूतरों के लिए दाना डालते थे। आज वहां दाना नहीं डाला जा रहा है। हो सकता है कि इस कारण से कबूतर भूखे हैं। इतना ही नहीं, जब ये कबूतर इस फर्श पर बैठकर दाना खाते थे तो बिल्लियां इन पर घात लगाए रहती थीं। लेकिन आज वहां कबूतर जमा नहीं हो रहे हैं, तो बिल्लियां भी गायब हो गई हैं। पशु-पक्षियों की भाषा समझ सकते, तो पता चलता कि मनुष्य के अदृश्य हो जाने से उनकी दुनिया में भी कोई कम बेचैनी नहीं है।