राजस्थान के चित्रकारों का समकालीन कला आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। एक समय था, जब यहां के चित्रकारों की एक पूरी पीढ़ी पूरे मनोयोग से आधुनिक प्रयोगवादी चित्रों से चित्रफलक को नए आयाम दे रही थी। उस समय चित्रकारों में काम के प्रति निष्ठा और चित्रकारी विद्या के लिए कुछ करने का जज्बा था। राजस्थान परंपरावादी चित्रों के लिए जाना जाता रहा है। इसके बावजूद यहां के आधुनिक चित्रकारों ने लीक को तोड़ कर आधुनिक कला कर्म को अपनाया और वे तत्कालीन स्थितियों के कोपभाजन भी हुए, लेकिन वे झुके नहीं और यथार्थपरक प्रयोगवाद के जरिए अपनी रंग-यात्रा जारी रखते हुए कला को ऊंचाई देते रहे। आज राज्य में स्थितियां बदल गई हैं। जो लोग समसामयिक कला को अपनाए हुए हैं, वे कारोबारी होते जा रहे हैं और बिना काम किए ही समकालीन कला में राजनीति करके अपनी पहचान बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
चित्रकार बनने की जो प्रक्रिया है, वे उसे पार नहीं करना चाहते, बस रातोंरात उच्चस्तरीय कलाकार बनने की सोचते रहते हैं। इस हड़बड़ी की प्रवृत्ति से समकालीन कला आंदोलन को बड़ा धक्का लगा है और अभिनव प्रयोगवाद का काम बीच में ही रुकगया है। आने वाली पीढ़ी के किसी कलाकार में राष्ट्रीय स्तर पर मान-सम्मान पाने की संभावना नहीं दिखती। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।
कला दीर्घाओं में जो काम देखने में आ रहा है, वह बहुत ही सपाट है और वह गहराई को नहीं दर्शाता है। यहां तक कि रंगों के प्रयोग भी चमत्कारिक नजर नहीं आते हैं और सामयिक युगबोध और वर्तमान जीवन की बेचैनी चित्रों में दिखाई नहीं देती। चित्रफलक सहज-सरल चित्रों से अटे पड़े हैं और चित्रकारों में एक ही तरह के चित्र बनाने की मनोवृत्ति दिखाई देती है।
हर चित्रकार की अपनी शैली, अपना रंग और अपना भाव होना चाहिए, लेकिन यह दिखाई नहीं दे रहा। एकरसता के कारण समकालीन कला ऊब के कगार पर आ खड़ी हुई है। जिस राज्य के चित्रकारों ने समकालीन कला आंदोलन में राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व किया हो, वहां यह स्थिति दुखद है। कला के क्षेत्र में इस अभाव के लिए कला-शिक्षा को भी दोषी माना जा सकता है। या तो राज्य के कला शिक्षक गंभीर नहीं हैं या फिर कुछ विद्यार्थी अपनी शिक्षा की गरिमा का खयाल नहीं रख पा रहे हैं। वे थोड़ा-सा काम करने के बाद अपने आपको ‘संपूर्ण कलाकार’ घोषित कराने की भूख के शिकार हो रहे हैं। यह प्रवृत्ति कला के लिए बहुत ही हानिकारक है। कला शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की अपनी-अपनी जगह अहम भूमिका है और उन्हें पूरी संजीदगी के साथ उसे निबाहनी चाहिए।
जहां तक कला संस्थाओं का सवाल है, वे भी समकालीन कला को बढ़ाने और नया रूप देने के प्रति सजग नहीं हैं।
वहां भी संस्था की बागडोर संभालने और चुनाव की राजनीति हावी रहती है। वर्षों से एक ही तरह के लोग बार-बार पदाधिकारी बन जाते हैं, इससे उनकी स्वार्थ-सिद्धि हो जाती है, लेकिन सदस्यों को आगे आने का मौका नहीं मिलता। जाहिर है, लंबे समय तक ऐसी स्थिति बने रहने के बाद कुछ लोगों के भीतर निराशा पैदा होती है और कला के प्रति उनके मन में उपेक्षा के भाव पनपने लगते हैं। चंद लोगों के एकाधिकार के कारण नए लोगों की पहचान नहीं बन पाती है। अगर उसके बाद भी अगर कोई नया कहा जाने वाला कलाकार कोशिश करता है तो उसे समुचित प्रोत्साहन नहीं मिल पाता। बल्कि उलटे उसे हतोत्साहित किया जाता है, उसे मान्यता नहीं मिलती। यह स्वार्थ से लैस मानवीय प्रवृत्ति का ही प्रतिफल है। कला संस्थाओं को अब अपना ढांचा और कामकाज की शैली बदलनी चाहिए और वहां नए प्रतिनिधियों को स्थान मिलना चाहिए।
इस तरह की कमजोरियों का शिकार कई उच्च स्तर की कला संस्थाएं भी हो जाती हैं। फिर जब आपसी होड़ से संचालित गतिविधियां हावी होती हैं तो वहां भी कामकाज की शैली और नीतियां प्रभावित होने लगती हैं। इससे व्यक्तियों या पदों को जो नुकसान हो, लेकिन सबसे ज्यादा क्षति कला को पहुंचती है। संस्थाओं के कर्ता-धर्ता भी चंद प्रभावशाली लोगों को पकड़ कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेते हैं। लेकिन इस क्रम में समग्र कला विकास का मार्ग जिस तरह अवरुद्ध हो जाता है, उसका सीधा असर गुणवत्ता पर पड़ता है।जाहिर है, समकालीन कला में आई इस उथल-पुथल और अराजकता से बचने के लिए जहां कला संस्थाओं और अकादमी की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है, वहीं नए चित्रकारों को भी अपने काम में पूरी संजीदगी दिखानी चाहिए। इसके अलावा, युगबोध और मानवीय संवेदना और दूसरी त्रासदियों को उभारने में सजग रहना चाहिए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि फिलहाल जिस तरह की अराजकता देखी जा रही है, उसमें आधुनिक चित्रकला की एकरसता बढ़ने वाली है। इस स्थिति से बचना और इस क्षेत्र के लिए सकारात्मक माहौल बनाना चित्रकार का दायित्व है।