मेरे एक वरिष्ठ मित्र 1960 के दशक में मास्को गए थे। वहां की बसों में लोगों को खुद से टिकट लेकर बस में बैठते देख उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। वहां न कोई कंडक्टर था और न कोई टिकट बेचने वाला। वहीं रहने वाले एक मित्र से जब उन्होंने पूछा कि ये सभी इतने ईमानदार और सच्चे लोग हैं और ऐसा लगता है कि यहां तो वास्तव में बड़ा बदलाव आ चुका है, तब उनके मित्र ने कहा कि ऐसा नहीं कि ये सभी बहुत ईमानदार हैं, पर इन्हें इस बात का बराबर भय बना रहता है कि पास में खड़ा व्यक्ति खुफिया पुलिस या केजीबी से न जुड़ा हो और अगर ऐसा हुआ तो टिकट न लेने वाले को भारी सजा मिल सकती है। सामाजिक नैतिकता अक्सर भय और कामना का मिश्रण होती है। किसी के भीतर कोई कोई इच्छा अगर कानूनन या सामाजिक तौर पर वर्जित है और उसे वह पूरा करने की कोशिश में पकड़ा जाए तो उसे अपराधी का दर्जा दे दिया जाता है। दूसरी ओर, कोई व्यक्ति इच्छा तो रखता हो, लेकिन उसे पूरा करने में उसे भय लगे तो वह लोगों की नजर में एक भला, भद्र और नैतिक इंसान बना रहेगा। अव्यक्त वर्जित कामनाओं को कानून संज्ञान में नहीं लेता। यह धर्म और दर्शन का विषय बन जाता है। गहरे अर्थ में नैतिकता तो तभी हुई, जब बगैर किसी भय के भी लोग एक दूसरे के साथ सद्व्यवहार करें। कानून और सजा के भय से उपजने वाली सामाजिक नैतिकता इसीलिए सतही होती है। इस सतही नैतिकता से एक बाहरी व्यवस्था तो आ सकती है, पर अक्सर वह अस्थायी होती है और कभी भी ­ध्वस्त हो सकती है।

सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत सामूहिक, राजनीतिक प्रयासों के जरिए हो या फिर व्यक्ति के आंतरिक परिवर्तन के साथ, यह समाजशास्त्रियों, दार्शनिकों और धार्मिक चिंतकों के बीच बहस का एक शाश्वत प्रश्न रहा है। सामाजिक बदलाव को लेकर पश्चिमी और प्राच्य दर्शन के बीच भी इसे लेकर विशेष मतभेद रहा है। महात्मा गांधी का वक्तव्य कि आप जो परिवर्तन समाज में देखना चाहते हैं, वह खुद के भीतर लाइए, सामाजिक परिवर्तन को लेकर प्राच्य सोच को रेखांकित करता है। यह सोच पूर्व के सभी धर्मों में रही है। रूपर्ट शेल्ड्रेक ने इस क्षेत्र में बहुत गहरे अध्ययन किए हैं। शेल्ड्रेक एक जैव-रासायनिक वैज्ञानिक हैं और उन्होंने अपने शोध में मॉर्फिक रेज्नेंस फील्ड का जिक्र किया है। उनके मुताबिक एक ही प्रजाति या अलग प्रजातियों के बीच भी किसी स्पष्ट माध्यम के बगैर भी संवाद स्थापित हो सकता है। उन्होंने कुत्तों के बर्ताव का गहरा अध्ययन किया। इसी तरह का एक प्रयोग 1952 में जापान के कोशिमा द्वीप पर कुछ वैज्ञानिकों ने किया। उन्होंने देखा कि एक द्वीप पर रहने वाले बंदर एक दिन अचानक वहां पैदा होने वाले शकरकंद को धोकर खाने लगे। वैज्ञानिकों को ताज्जुब तब हुआ जब उसी पीढ़ी के कई और बंदर और फिर अगली पीढ़ी के बंदर भी अपने आप ऐसा करने लगे। यही नहीं, उसके बाद आसपास के और दूरदराज के द्वीपों में भी बंदर ऐसा ही करने लगे।

इन दो गंभीर शोधों के जरिए यह निष्कर्ष स्थापित किया गया कि अगर धरती के कुछ इंसानों में भी बुनियादी बदलाव संभव हो सके तो यह परिवर्तन बाकी लोगों तक भी पहुंच सकता है। इस संबंध में अनीश्वरवादी चिंतक जे कृष्णमूर्ति का साफ कहना है कि समूची मानव चेतना एक ही वैश्विक एकात्मक गति है और व्यक्ति का पृथक अस्तित्व एक भ्रम है। उनका कहना है कि व्यक्ति या ‘इंडिविजुअल’ शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी के ‘इन्डिविजिब्ल’ या अविभाज्य शब्द में है! वे कहते हैं कि कोई व्यक्ति अगर अपने दुख को खत्म करने के लिए प्रयास करता है तो वह वास्तव में समूची मानव जाति के दुख को कम करने का प्रयास करता है।व्यक्ति के महत्त्व को कम नहीं आंका जा सकता। ढाई हजार साल पहले जनमे बुद्ध आज भी मानव चेतना को प्रभावित कर रहे हैं। अकेले महात्मा गांधी ने पूरे विश्व को अपनी सोच से झकझोर डाला था। नकारात्मक अर्थ में देखें तो हिटलर ने गलत कारणों से ही सही, इतिहास में अपनी घिनौनी, पर अमिट छाप छोड़ी है।

दूसरी ओर, सामूहिक परिवर्तन की कोशिशें कई बार नाकाम हुई हैं। विश्व इतिहास में इसके उदाहरण मौजूद हैं। इनमें सबसे बड़ा सवाल यही उभर कर सामने आता है कि अगर व्यक्ति का लोभ, सत्ता की उसकी भूख और स्वार्थपरता खत्म नहीं होती, तो क्या वह किसी भी व्यवस्था को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ नहीं देगा! एक विभाजनरहित समाज का स्वप्न देखने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों के एक समूह के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि वह खुद में विखंडित न रहे, स्पष्ट हो और क्षुद्र स्वार्थ से मुक्त रहे। मुझे लगता है कि व्यक्तिगत परिवर्तन और सामूहिक परिवर्तन की कोशिश एक साथ होनी चाहिए, क्योंकि जो सीमित, संकुचित होकर व्यक्ति बन जाता है, वही बाहर जाकर, विस्तृत होता है और समाज बन जाता है।