स्वतंत्रता दिवस के दिन कुछ ऐसी चीजों की ओर ध्यान गया, जिसने मुझे इस दिन की अहमियत और इसके बदलते स्वरूप पर सोचने पर मजबूर किया। ऐसा लगता है कि आजादी के मायने अब थोड़ा बदल गए हैं। अब आजादी का मतलब देश पर मर-मिटने का जज्बा नहीं, किस्म-किस्म के उत्पादों पर ‘डिक्साउंट’ पाना या बाजार के साथ और बाजार के लिए खड़े होना है। कंपनियां आजादी वाले दिन दिल में देश के प्रति कुछ कर गुजरने का उत्साह नहीं जगातीं, बल्कि यह बताती हैं कि उनके किसी उत्पाद पर इतने-इतने की रियायत मिल रही है। वह भी अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन छाप कर। बाजार ने हर पर्व और त्योहार को धन आधारित उत्सव में बदल दिया है। बाजार कहता है कि आप पर्व और त्योहार की मूल भावनाओं में न जाएं, उसे महज एक उत्सव मान कर ‘सेलिब्रेट’ करें। ऐसा करके आप सीधे बाजार से जुड़ेंगे। बाजार में रियायती दर पर सामान लिए तैयार खड़ी कंपनियों से जुड़ेंगे। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि किस देशभक्त ने देश के लिए क्या किया, महत्त्वपूर्ण अब यह है कि कौन-सी कंपनी अपने किस उत्पाद पर कितने की रियायत और किसके साथ क्या-क्या मुफ्त सामान दे रही है। आजादी जीत की नहीं, मुफ्त और रियायत पाने की है।

आॅनलाइन स्टोर ने बाजार की लत को हम पर और अधिक प्रभावी बना दिया है। पंद्रह अगस्त के आसपास तमाम आॅनलाइन स्टोर अपने यहां तरह-तरह के ‘डिस्काउंट’ लिए तैयार रहते हैं। सभी पर ‘मेगा-सेल’ की सूचना प्रदर्शित की जाती है। कई बार हरेक सामान पर इतना ज्यादा डिस्काउंट पेश किया जाता है कि मन में लालच आ जाना स्वाभाविक हो जाता है। उस वक्त शायद भूल जाते हैं कि हम बहुत मुश्किलों से मिली आजादी का जश्न नहीं, बल्कि बाजार की ओर से दिए गए ‘डिस्काउंट’ का लाभ उठाने को बेताब हैं। तब हमारे लिए यह अहसास भी मायने नहीं रखता कि देश की आजादी की खातिर शहीद होने वाले किस क्रांतिकारी ने क्या-क्या किया था, कैसे-कैसे कष्ट उठाए थे, अंग्रेजी सरकार के कौन-कौन से जुल्म सहे थे। हमारा ध्यान केवल ‘डिस्काउंट’ की आजादी पाने पर रहता है। कुछ लोग इसे ही अपनी आजादी का वास्तविक हक मानते हैं।

इसमें सारा दोष बाजार का नहीं है। दरअसल, हम इस कदर आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि हमें न बाहर, न आसपास और न ही इतिहास की चीजें दिखाई नहीं देती हैं। हम खुद में ही सिमटे रहना चाहते हैं। या फिर जो हमें बाजार बता या दिखा देता है, उसे ही सच मान लेते हैं। शायद इसलिए कि आज की तारीख में हमारे कद से कहीं ज्यादा बड़ा कद बाजार का हो गया है। बाजार के कद ने हमें न केवल अपने घर में, बल्कि इतिहास में भी बौना बना डाला है। तमाम तरह की आजादियों को लेकर बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन जब कुछ कर गुजरने की बारी आती है, तब सब अपने-अपने घरों में यों घुस कर बैठ जाते हैं, जैसे सब कुछ ठीक चल रहा है। जिस व्यवस्था को हम रात-दिन गरियाते हैं, फिर उसी से समझौता भी कर लेते हैं। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि हम हरेक स्वतंत्रता दिवस पर शहीदों के मार्ग पर चलने का संकल्प ही ‘झूठा’ लेते हैं! हमारे अंदर उतना साहस ही नहीं कि हम शहीदों के दिखाए-बताए मार्ग पर चल सकें या उन जैसा बनने की कोशिश कर सकें। दरअसल, अगर हम शहीदों के जैसा बनने की कोशिश करेंगे तो बाजार और डिस्काउंट दोनों से दूर हो जाएंगे। शहीदों का मार्ग बहुत कठिन है। शायद इसीलिए गाहे-बगाहे होने वाले आंदोलन महज खानापूर्ति बन कर रह जाते हैं।

लेकिन बाजार हमारे भीतर खरीद-बिक्री का उत्साह पैदा कर सकता है, मगर आजाद होने का वास्तविक अहसास नहीं दे सकता। यह हो सकता है कि बाजार की मांग के मुताबिक चला जाए तो हर तरह का फायदा उठाया जा सकता है। बाजार इसीलिए हर वक्त इस फिराक में रहता है कि अपने ग्राहक को कैसे लुभा सके। ग्राहक को लुभाने का रियायत या मुफ्त सामान देने के प्रस्ताव से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि अब हमारे बच्चे भी आजादी का मतलब नहीं पूछते। राष्ट्रीय त्योहारों के मौके पर भी वे देश की आजादी की बात लगभग नहीं के बराबर करते हैं। वे बात करते हैं तरह-तरह के ‘डिस्काउंट’ की और किस सामान के साथ क्या मुफ्त मिल रहा है। बाजार के वर्चस्व ने आजादी के अर्थ को ही बदल कर रख दिया है। बाजार अब हकीकत हो गया है और इसके आगे कंपनी के ‘डिस्काउंट’ का चयन करने की आजादी रह गई है बस।