निशा नाग

विश्वविद्यालय से कला संकाय की ओर जाने वाली सड़क पर मैं अपनी एक सहकर्मी के साथ चली जा रही थी। सामने से आती एक पूर्व छात्रा मेरी सहकर्मी की परिचित थी। उसने अभिवादन किया। मिलते ही मेरी सहकर्मी ने पूछा- ‘और क्या हाल हैं तुम्हारे? नौकरी लगी या नहीं और शादी-वादी?’ जबकि उसे देखते ही लगता था कि वह संघर्ष के उस दौर से गुजर रही है, जब प्रौढ़ होती लड़की नौकरी की लाईन में लगी होती है। चूंकि नौकरी नहीं होती, इसलिए शादी के बाजार में उसकी शिक्षा का भी कोई मोल नहीं होता। इन प्रश्नों पर असहज होकर वह लगभग रुआंसी होते हुए बोली- ‘अभी दोनों में से कुछ भी नहीं।’ उसके जाने के बाद जब मैंने अपनी सहकर्मी से कहा कि क्या जरूरत थी इस तरह पूछने की! ऐसे भी तो पूछा जा सकता था कि ‘आजकल क्या कर रही हो या कैसा चल रहा है? वह अपने आप बता देती।’ इस पर उसने जवाब दिया- ‘बस ऐसे ही पूछ लिया। मैंने सोचा नहीं।’
मेरी आंखों के आगे बार-बार उस लड़की का असहज और रुआंसा चेहरा आ रहा था। लगा आज दिन भर वह व्यथित रहेगी। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो सामने वाले की मन:स्थिति या भावनाओं का ध्यान रखते हुए बातचीत करते हैं।

अक्सर वही बात पूछी जाती है जो अगले आदमी का कमजोर पहलू होता है। हालांकि यह भी सच है कि सच का सामना और इसे बेबाकी से स्वीकार करने की हिम्मत होनी चाहिए। फिर भी भरी महफिल में सबके सामने व्यक्ति के किसी कमजोर पहलू की चर्चा उसे व्यथित करती है। संस्कृत की एक उक्ति है- ‘सत्यम ब्रूयात प्रियम ब्रूयात, न अपि सत्यम अप्रियम ब्रूयात’, यानी सत्य बोलो प्रिय बोलो, अप्रिय सत्य मत बोलो। लेकिन सत्य का साथ देने में अप्रिय तो बोलना ही पड़ता है। सबको खुश रखने के लिए की गई बात तो कहीं न कहीं झूठ होगी ही। लेकिन क्या रोजमर्र्रा के जीवन में ऐसी स्थिति से बचा नहीं जा सकता, जहां बिना सोचे-समझे या जान-बूझकर अगले व्यक्ति को चुभने वाली बात न कही जाए? कुछ लोग अपनी साफगोई का हवाला देते हुए कहते हैं- ‘हम मन में कुछ नहीं रखते… सीधे-साफ कह देते हैं!’ ऐसे जुमले उनकी शोभा होते हैं। सवाल है कि व्यक्ति सभ्य होने की प्रक्रिया में अपनी वाणी या क्रोध पर पर नियंत्रण रखना नहीं सीख पाया तो उसने क्या सीखा? सभ्य होने की निशानी ही यह है कि व्यक्ति अपनी ऐसी प्रवृत्तियों पर काबू रखे।

बिना सोचे-समझे बोलने का ही अगला चरण है बिना विचार किए काम करना। लोक में ढेरों कथाएं मौजूद हैं कि बिना सोचे-विचारे काम करने का क्या नतीजा होता है। गिरिधर कविराय की प्रसिद्ध कुंडली है- ‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए, काम बिगारे आपना जग में होत हंसाए!’ संस्कृत में इस व्यवहार के लिए एक शब्द है- ‘अविमृश्यकारिता’। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास ‘पुनर्नवा’ में कथन है- ‘सुमेर काका की दो बातें समुद्रगुप्त को चीर गर्इं। सम्राट अविमृश्यकारी है। बिना सोचे-समझे काम कर बैठता है। अविमृश्यकारिता सबके लिए चरित्रगत दोष है, पर सम्राट के लिए तो वह अक्षम्य अपराध भी है। उसके बिना सोचे-विचारे निर्णय से सहस्रों को कष्ट हो सकता है, सैकड़ों की मान-मर्यादा ध्वस्त हो सकती है, साम्राज्य लड़खड़ा सकता है।’
राजनीति में चंद वोटों के लिए भी ऐसे तत्काल निर्णय लिए जाते रहे हैं, जिनका दूरगामी प्रभाव नहीं सोचा जाता। दृष्टि बाधकता की इस स्थिति के लिए एक शब्द अक्सर इस्तेमाल किया जाता है- ‘मायोपिक’, यानी वह दृष्टि-दोष, जिसमें व्यक्ति दूर तक नहीं देख सकता। सीमित नजरिया आजकल एक तरह का स्वभाव भी बन गया है। अल्प समय के लिए ही सही, सत्ता में रहने का लोभ न जाने कितने ऐसे तात्कालिक निर्णय करवाता है, जिनके विषय में कहा जाता है ‘लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।’

आपसी बात-व्यवहार का एक अन्य पहलू है ‘गिरगिटी व्यवहार’। वे लोग जो आपसे बोलते भी नहीं या सिर्फ मतलब पड़ने पर ही बात करते हैं, अगर उन्हें कोई काम हो तो उनका व्यवहार और बोलने-बतियाने का तरीका अचानक से बदला हुआ नजर आता है। वाणी में मिठास और स्वभाव में अचानक मृदुता दिखाई देने लगती है। साथ ही उनका यह संकल्प भी कि यह समय बीत जाए, फिर देख लेंगे! वह व्यक्ति जो सीधे मुंह बात नहीं करता था, अचानक शिष्टता का पुतला बना नजर आता है, क्योंकि उसे आपसे काम करवाना है। वक्त निकल जाने पर ऐसे लोगों का फिर से बदला हुआ स्वभाव दिखाई देने लगता है। कुछ लोग सकारण और अकारण इस तरह के व्यवहार के आदी होते हैं। यों सभी के स्वभाव का एक स्थायी भाव होता है। कोई चिंतित मुद्रा में नजर आता है तो कोई खुश रहता है। कोई शीघ्र क्रोधित हो जाता है तो कोई सौम्य स्वभाव वाला होता है। समस्या स्थायी भाव से अधिक भिन्न व्यवहार को ओढ़ने से पैदा होती है, क्योंकि यही वह व्यवहार है जो स्वार्थवश बदलता रहता है और मनुष्यता का हनन करता है।