बुद्ध और किसागोतमी के बीच का एक संवाद है। किसागोतमी का पुत्र मौत का शिकार हो गया था और वह जार-जार रोते हुए बुद्ध के पास आई थी और बुद्ध ने उससे कहा था कि वह उस घर से सरसों के कुछ दाने लेती आए, जहां कोई कभी न मरा हो। किसागोतमी को मृत्यु की अवश्यंभाविता और सर्वव्यापकता के बारे में तुरंत समझ आ गया। कोई यह समझा सके और किसी को यह बात समझ में आ जाए, तो यह एक बड़ा चमत्कार माना जाएगा।

यह समझ तो सदियों से कलेजे में धंसी कील को हमेशा के लिए निकाल देगी, सिर्फ एक अस्थायी इलाज भर नहीं करेगी। थिच नाह्त हान विएतनाम के बौद्ध भिक्खु थे और जीवन के आखिरी वर्षों में फ्रांस में रहते थे। उन्होंने कहा था- ‘असली चमत्कार यह नहीं कि कोई पानी पर चल कर दिखा दे। असली चमत्कार तो यह है कि हम सभी एक साथ शांति से इस धरती पर कैसे चलें।’ नालंदा में जब बुद्ध रुके हुए थे, तब केवद्ध नाम के एक जिज्ञासु ने उनसे चमत्कारों के बारे में पूछा था।

बुद्ध ने अपने उत्तर में कहा था- ‘यदि कोई भिक्खु अनुयायियों और भक्तों की तलाश में चमत्कार दिखाता है तो वह शर्मिंदगी, अपमान और बेशर्मी का पात्र बन जाता है। इन चमत्कारों से न ही कोई संबोधि को प्राप्त होता है और न ही इंसान के दुख का अंत होता है। सिर्फ वही कृत्य चमत्कार की श्रेणी में आता है, जिससे मनुष्य के दुख का निरोध हो सके’।

यों रोज घटने वाले विज्ञान के उन असंख्य चमत्कारों को देखा जा सकता है, जिससे कोई दंग रह जाए। हजारों मील दूर बैठे अपने मित्र से कुछ सेकंडों में ही फोन मिला कर सीधे बात की जा सकती है। यह एक विराट चमत्कार की तरह ही लगता है। जब दवा की एक छोटी-सी गोली माइग्रेन के भयंकर दर्द को कुछ देर में ही भगा देती है, तो उसके आविष्कारक को नमन करने का मन करता है। हवाई जहाज में हजारों किलोमीटर का सफर जब थोड़े समय में ही पूरा हो जाता है, ताज्जुब होता है कि जिस इंसान ने इसकी कल्पना की होगी और उसे मूर्त रूप दिया होगा, वह कितना बड़ा चमत्कारी व्यक्ति होगा।

उन्हें हम संत और बाबाओं की श्रेणी में नहीं रखते, पर उनके चमत्कारों ने हमारी दुनिया को बदला है। कुदरत को देखिए… जंगलों की सहनशीलता, नदियों की असहायता, समुद्र की मर्यादा के बारे में सोचने पर लगता है कि इनसे बड़ा संत कौन हो सकता है, जिन्होंने सदियों से चुपचाप हमारे अत्याचार सहे हैं। मानव समाज के सबसे प्यारे और समझदार लोग हमारे कल्याणमित्र रहे हैं। उन्हें संत बना कर एक ऊंचाई पर रख देना और उनकी पूजा-आराधना शुरू कर देना हमारे कुटिल दिमाग की उपज के सिवाय और कुछ भी नहीं।

जरूरी नहीं कि किसी का संत होना बाकी बचे लोगों को संतत्व प्राप्त करने के प्रयास करने के लिए प्रेरित करे। यह उनके भीतर एक ग्लानि बोध भी पैदा कर सकता है। एक बात यह भी है कि क्रूरता, विषमता और अंधविश्वासों से भरी दुनिया में एकाध असली संत हो भी जाए तो कौन-सी महान उपलब्धि हो गई! पहले से ही सैकड़ों विभाजनों की शिकार दुनिया में संत और असंत के बीच का एक और विभाजन जुड़ जाएगा और दूसरे लोगों को अनुपालन, अनुगमन और व्यक्ति पूजा की संस्कृति के साथ रहने का एक और अवसर मिल जाएगा।

किसी संगठित धर्म के नियमों के अनुसार किसी का संत हो जाना मानवता के दुख की दवा नहीं बन जाता, बस उसी संगठन के अपने एकांतिक, विशिष्ट तौर-तरीकों को एक नई ऊर्जा प्राप्त होती है और धार्मिक संगठन के लिए उनकी परंपराएं ही जीवन का स्रोत होती हैं। उन पर संदेह और प्रश्न करना उनकी जड़ों को ही कमजोर बनाता है।

इसलिए संत, असंत, गिने-चुने लोगों को संतों की श्रेणी में शामिल करने की इस परंपरा पर प्रश्न उठाने का कार्य उसी संगठन से जुड़े लोग नहीं कर सकते। पर आम, तर्कशील, रेशनलिस्ट, नास्तिकता या संशयवाद की तरफ झुकाव रखने वालों को ये प्रश्न लगातार उठाने चाहिए। तभी धीरे-धीरे इस दिशा में बदलाव की गुंजाइश बढ़ेगी।