तकरीबन बीस-बाईस साल पहले की बात है। स्थानीय पत्रकारिता में इतना दखल था कि शक्ल और नाम से लोग जानते थे। एक दिन तीन लोग मेरे घर आए। मैं किसी को नहीं पहचानता था। उन्होंने अपना परिचय दिया। वे पशु-पक्षियों की सेवा और रक्षा से जुड़ी एक संस्था से थे। एक सज्जन ने उनकी संस्था को अपनी जमीन दान में दी हुई थी। कानूनी पेच के चलते नामांतरण के लिए कलक्टर की अनुमति जरूरी थी।
उनका कहना था कि ढाई वर्ष से उनका मामला अकारण ही लंबित पड़ा हुआ है। वे चाहते थे कि इस काम के लिए इस बार वे जब कलक्टर से मिलने जाएं तो मैं भी उनके साथ चलूं। मैंने कहा कि मैं न तो उन्हें जानता हूं और न ही उनकी संस्था के बारे में। पहली नजर में मुझे मेरी कोई उपयोगिता और आवश्यकता अनुभव नहीं हो रही थी। मैंने अपना असमंजस बताया और पूछा कि अगर मैं उनके साथ चला भी गया तो कहूंगा क्या? मुझे तत्काल जवाब मिला कि उन्हें केवल मेरी मौजूदगी चाहिए और यह भी कि मैं बिल्कुल नहीं बोलूं। मेरी जिज्ञासा दोहरी हो गई। पहली जिज्ञासा के मूल में पत्रकारिता का कीड़ा था- ‘अकारण ही मामला लंबित क्यों है?’ और दूसरी के मूल में यह कि मेरी चुप्पी भरी मौजूदगी भला कैसे प्रभावी हो सकती है!
निर्धारित दिन जब हम कलक्टर के कमरे में पहुंचे तो वे देखते ही बोले- ‘अरे! आप फिर आ गए?’ फिर मुझे देख कर बोले- ‘अच्छा! इस बार इन्हें भी साथ ले आए?’ यानी कलक्टर मुझे जानते हैं! मुझे अचरज हुआ। फिर कलक्टर ने हमें बाइज्जत कुर्सी दी। संस्था वालों में से कोई कुछ बोलता, उससे पहले ही कलक्टर ने घंटी बजा कर सेवक को बुलाया। हमारे लिए चाय और संबंधित फाइल लाने के निर्देश एक साथ दिए। थोड़ी ही देर में फाइल कलक्टर के सामने थी। उन्होंने अंतिम पन्ना ध्यान से देखा और फाइल को बंद करते हुए बोले- ‘आप बेकार ही परेशान हो रहे हैं। इसमें कुछ भी तो बाकी नहीं है। आप जाइए। आपका काम हो जाएगा।’
संस्था के मुखिया ने कहा- ‘साहब! दो महीने पहले भी आपने यही कहा था। न तो कोई विवाद है और न ही किसी ने आपत्ति पेश की है। सारी खानापूर्ति हो गई है। आप खुद कह रहे हैं कि इसमें कुछ भी बाकी नहीं है। हम यहां अस्पताल बनाना चाहते हैं। नामांतरण हो तो निर्माण के लिए लिखा-पढ़ी शुरू करें। ढाई बरस हो गए हैं। ऐसे कामों के लिए पैसा जुटाना वैसे भी मुश्किल काम है। देर होने से निर्माण की लागत साल-दर-साल बढ़ती जा रही है। आप आज निपटा देते तो मेहरबानी होती।’ तब तक चाय आ गई। चाय का प्याला थामे कलक्टर ने शांत मुद्रा में पूरे आत्मविश्वास से कहा कि संस्था वाले बेफिक्र होकर जाएं। नामांतरण की मंजूरी मिल जाएगी।
अब मैं खुद को रोक नहीं पाया। चाय पीते-पीते, चुप रहने का अपना वचन-भंग करते हुए पूछ बैठा कि आखिर किस कमी के चलते कलक्टर हस्ताक्षर नहीं कर पा रहे हैं! बहुत सादगी से कलक्टर ने बताया कि दो डिप्टी कलक्टरों के हस्ताक्षरों की औपचारिकता बाकी है। दोनों को कुछ नहीं करना है। बस! हस्ताक्षर करने हैं। मुझे हंसी आ गई। मेरी हंसी ने कलक्टर को असहज कर दिया। उन्होंने पूछा- ‘क्यों? आप हंसे क्यों?’ मैंने कहा कि मैं तो सोचता था कि काम करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित की गई है। लेकिन देख रहा हूं कि प्रक्रिया पूरी करना ही काम हो गया है।
कलक्टर को मेरी बात चुभ गई। चाय का प्याला एक तरफ रख कर थोड़े आवेश से फाइल खोली और हस्ताक्षर कर मुझसे बोले- ‘अब तो आप खुश?’ बिना विचारे मेरे मुंह से निकला- ‘अब तो मैं और दुखी हो गया।’ कलक्टर अचकचा गए। उलझन और झुंझलाहट उनके चेहरे पर छा गई। मानो मुझे झिड़क रहे हों। उन्होंने कुछ इस तरह से पूछा- ‘क्यों? अब दुखी क्यों? अब तो आपको खुश होना चाहिए?’ कलक्टर को इस दशा में देख मेरा पत्रकार बल्लियों उछलने लगा। मैंने कुछ इस अंदाज में बोला- ‘अगर यही होना था तो ढाई बरस पहले ही क्यों नहीं हो गया?’
इसके बाद जो हुआ, सो हुआ। सबने मुश्किल से चाय खत्म की। संस्था वाले सहमे-सहमे उठे। वे मुझसे पहले निकलना चाह रहे थे और मैं उनसे पहले। बाहर निकल कर हम सबमें क्या बातें हुर्इं, यह अर्थहीन है।
विष्णु बैरागी
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