फागुन के बाद जब चैत आता है तो मौसम का मिजाज पूरी तरह बदल जाता है। हवा में ठंडापन होता है, तो नहीं भी होता। लेकिन एक राग हवा में अवश्य तैरता रहता है, जो अलसुबह या रात के अंधेरे में मंजीरे की धुन में बजता है। यों चैत मेलों का महीना भी है। ग्रामीण मेलों की भरमार लग जाती है। छोटे-छोटे कस्बों और नगरों में हाट बाजार लगते हैं और देहात के लोग अपने आनंद की अभिव्यक्ति करते हैं। अलगोजे की बीन पर सुर साधते ग्रामीणों के झुंड रास्तों से निकलते हैं तो स्त्रियां हंसे बिना नहीं रहतीं। बैलगाड़ियों के पहियों की चर्र-चूं परिवेश में खनकती जान पड़ती है।
कृषि-कार्यों से निपट कर धान निपजने की खुशी में पगलाया किसान मेलों की ओर दौड़ पड़ता है, गांवों में यह विशेषता अब भी प्रचलित है कि वहां साप्ताहिक बाजार लगते हैं। इनमें पहुंचने वाले ग्रामीण सारे अभावों को भूल कर चेहरों पर सिवा खुशियों के दूसरे भाव आने भी नहीं देते। चैत का नवसंवत्सर भारतीय संस्कृति की पुरातन परंपरा के एक जीवंत साक्ष्य रूप में आज भी सोत्साह दिखाई देता है। समग्र भारत में इसका अपना विधि-विधान है और इसकी परिपाटी में संस्कृति की सोंधी गंध अब भी महकती है। हवा के बदलते रुख के साथ ही यह त्योहारों की कई छटाएं लेकर आता है। स्त्रियों का सजना-संवरना और गीत अलापना यहां की सांस्कृतिक विरासत में सम्मिलित है।
खासतौर पर इस महीने में तो उत्सवप्रियता चरम पर होती है और वह सिंजारा, गणगौर, शीतला पूजन, नवरात्र, रामनवमी, महावीर जयंती चेटीचंड, गुडफ्राइडे और वैशाखी पर्वों के आयोजनों में जीवंत रहती है। इस रूप में सांप्रदायिक सद्भाव का मिला-जुला रूप चैत में दिखाई देता है। विविधता में एकता का भाव पिरो जाती है यह चैत की हवा।
चैत के बारे में कवियों की अपनी भावनाएं हैं। वे फागुन की चुहलबाजी से तंग आकर इस माह में तनिक गंभीर होकर सोचते हैं। कविता की गंभीरता का यहीं से समारंभ होता है। जो छंद फागुन में निबंध थे, वे यहां आते थोड़ा सांस्कृतिक अनुशासन लेने लगते हैं। जिस माह में संस्कृति अपना प्रतिबिंब देखती हो, उस माह की विशेषताएं अपने आप में सघन होती हैं और भारतीयता की सौ प्रतिशत प्रतिरूप भी। गीतों के स्वर प्रखर होने लगते हैं और कंठों में मधुरता पहले से कहीं ज्यादा होती है। सरसों के पीले फूलों का वितान देखते ही देखते सिमटने लगता है और एक नूतन आह्लाद से सराबोर मनुष्य प्रकृति में खुशियां तलाशता है। नदियों का तेज प्रवाह एक धार में सिमट कर खामोश चांदी के समान सफेद बन कर बहता है और आज के वृक्षों में कैरियां निकल आती हैं। कोयल की कूक चैत में भी गूंजती है। कोयल ने आम पर बैठना अभी छोड़ा नहीं है और ये हठियले तोतों के झुंड तो इधर से उधर दौड़-धूप करते हैं या कच्ची अमियां कुतरते रहते हैं।
सूर्योदय के बाद उठने वालों को पता ही नहीं चलता कि यह माह चैत का है। चैत का पता विहान में चलता है। यह हवा बताती है। वह हवा जो एक बार पा लेता है, वह बार-बार उसकी मुद्रा से सामना करता है और सुख लूटता है। समग्र वातावरण में सूरज उगने का समय चैत का अपनी मोहकता और लुभावनेपन के साथ सबको आकर्षित कर लेता है। मनुष्य सारे अभाव भूल कर प्रकृति का वैभव लूटता है। इस रूप में अगर चैत की दुपहरी में घास का अहसास हो तो जो हवा पेड़ों से चल कर आती है उसकी ठंडक का अंदाजा वही मन लगा पाता है, जो चैत से सांस लेता है।
बेतहाशा भागते शहरों में चैत के दर्शन नहीं होते। उन्हें पता ही नहीं चलता कि यह कब आया और कब चला गया। पलाश, अमलतास, गुलमोहर और अन्य वृक्षों की बहार का आलम दर्शनीय होता है। फूलों से लदे-फदे वृक्ष अपने आह्लाद की अभिव्यक्ति करते हैं और फूलों में गंध बची होती है। वह इस माह में प्रखर हो जाती है।
चैत मनुष्य का वसंत होता है, जो पूरे एक वर्ष बाद लौटता है। इसका लोकानुरंजक स्वरूप साहित्य और संस्कृति में रचा-बसा है। उसके रंग कई रूपों में दिखाई देते हैं और यह भावी जीवन को एक सुखद अहसास के साथ चलाने की राह भी बताता है। महीनों में जो चैत की बात है, वह दूसरे महीनों में कहां! लोक संस्कृति के संपूर्ण मनोयोग को रचा-पचा कर यह एक सुकून देता है और गीतों को लय प्रदान करता है। गांवों के छैलाओं में कहीं बेदर्द भाव पनपते हैं और वे बागों में बांसुरी बजा कर अपनी भावाभिव्यक्ति को सार्थक करते हैं। तभी फिर चैत की हवा का झोंका शरीर में एक झुरझुरी जगा जाता है और वह निपट नया संयोग भाव जगाने में सक्षम होता है। चैत की हवा फिर चल रही है। उसे देखें, महसूस करें और सांसों में भर लें।
