अनिता वर्मा

आज अधिकांश रिश्तों में दरार, टूटन, अनबोला होना, सब कुछ इसी कला की अपूर्णता से हो रहा है। बहस, तकरार, शब्द बाण, व्यंग्य बाण, सब कुछ इस कला के अभाव में सामने आते हैं। कई बार हम जो कहना चाहते हैं, उस भाव की मूल संवेदना सामने वाले तक संप्रेषित नहीं हो पाती और वक्ता की बात का श्रोता अपने हिसाब से अर्थ लगा लेता है।

मूल बात का स्वरूप कई बार विकृत हो जाता है। अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। ‘मेरा मतलब यह नहीं था… मैंने यह कहना चाहा था… आप शायद गलत समझ गए..!’ इस प्रकार संवाद होता रहता है। सामान्य बहस क्रोध में बदल जाती है। कई बार बातचीत बंद हो जाती है और रिश्तों की मिठास में अजीब-सी कड़वाहट घुल जाती है।

अलंकारों में वक्रोक्ति अलंकार में वक्ता की बात का श्रोता जब अपने अनुसार अर्थ निकाल ले तो कई बार भाव संप्रेषण सही नहीं हो पाता। यह हो सकता है वक्ता ने तो बात अपनी दृष्टि से सही कही हो, पर सामने वाला कई बार उस बात को अनेक संदर्भों और अर्थों के साथ ग्रहण कर लेता है। प्रत्यक्ष रूप में तो सब ठीक रहता है, पर जहां संवाद फोन पर है, तो कई बार बात कहने का लहजा, सुनने और बोलने वाले की मन:स्थिति सब का महत्त्व होता है। भाव संप्रेषण सही रूप में श्रोता तक पहुंचना जरूरी होता है।

कई बार पता ही नहीं चलता कि कही गई बात का श्रोता पर क्या प्रभाव पड़ा, क्योंकि फोन पर चेहरे के भाव उसके उतार-चढ़ाव दिखाई नहीं देते और कहनेवाला भाव पढ़ नहीं पाता। सही बात और सही भावना से प्रस्तुत विचार और कथन भी कभी गलत रूप में समझने, उसका गलत भाव ग्रहण करने पर आपस में गलतफहमी पैदा हो जाती है।

बात कहने वाले को पता ही नहीं चल पाता कि आखिर हुआ क्या! क्या गलत कह दिया! हां, कटु शब्दावली का प्रयोग जरूर आहत करता है। लेकिन सरलमना व्यक्ति कई बार जो भाव प्रकट करना चाहता है, जो समझाना चाहता है या कहें अपना पक्ष रखना चाहता है, पर कई बार शब्द सामर्थ्य के अभाव में वह कसूरवार सिद्ध हो जाता है। जबकि वह अपनी जगह सही होता है। यहां बात सही रूप में भावों के संप्रेषण की हो रही है जो उसे नहीं आती।

कहने को यह सामान्य-सी बात है और दो लोगों में जब संवाद होता है, उसमें किसी एक की जब असहमति होती है तो वह सही बात को भी समझने को तैयार नहीं होता और हमेशा की तरह बात इस वाक्य पर आकर समाप्त होती है कि ‘तुम्हें बात करने का ढंग नहीं है’। बस अंतिम निर्णयात्मक वाक्य जो हमेशा के लिए उस व्यक्ति को उस बात की तकलीफ देता है, जो उसने कही नहीं। कई बार मोबाइल पकड़े हुए घूमते-घूमते अपनी बात को जोर देकर कहते हुए, फोन पर चिल्लाते हुए लोगों को देखा-सुना जा सकता है। इस प्रकार के व्यवहार के पीछे एक ही कारण होता है। या तो सामने वाला सुनना नहीं चाहता या भाव संप्रेषण की कला का अभाव है।

अनुभूतियां महसूस करने का विषय होती हैं। भाव उमड़ते-घुमड़ते हैं। जीवन में संवाद बहुत जरूरी होता है। बिना संवाद के जीवन के सब रंग फीके हैं। संप्रेषण वह प्रक्रिया है, जो भावों विचारों का संवाहक होती है, जहां विचारों का आदान-प्रदान होता है। सामाजिक सरोकार, संबंधों के निर्वहन के लिए सार्थक, शिष्ट और प्रभावी संवाद या भाव संप्रेषण जरूरी होता है। अति संवेदनशील व्यक्ति बहुत जल्दी इन सबसे प्रभावित हो जाता है।

इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य प्रभावित नहीं होते हैं। पर कई बार उसे सामान्य रूप में ग्रहण कर लिया जाता है या हंसकर टाल दिया जाता है। या अपने अनुसार समझ लिया जाता है कि शायद कहने वाले का मतलब यह नहीं रहा होगा। तब स्थितियां सामान्य रहती हैं, संबंध बना रहता है। पर अति संवेदनशील कहे जाने वाले लोगों के दिल और दिमाग में कोई बात इतनी गहराई से जम जाती है कि वे अपने अलावा किसी की बात न मानना चाहते हैं, न सुनना। यही तकलीफदेह हो जाता है।

भाव संप्रेषण के मूल में विचारों का आदान-प्रदान होता है। कुछ सूचनाएं होती हैं, कुछ आसपास के समाचार होते हैं। सवाल-जवाब होते हैं। प्रत्येक मनुष्य के साथ यह प्रक्रिया भिन्न होती है। जैसे दफ्तर में काम करने वाले अपने दफ्तर से संबंधित बात करेंगे। घर में, समाज, परिवार मित्रों में भाव संप्रेषण के विविध प्रकार होते है। लेकिन आत्मीय रिश्तों में जरा सावधानी जरूरी होती है।

अन्यथा कही गई बात सही रूप में प्रेषित नहीं हुई तो बात बिगड़ जाने की संभावना रहती है। नतीजतन, विवाद की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए आत्मीय भाव बनाए रखना चाहिए। इस भागदौड़ भरी जिंदगी में खुशियां जहां से मिले, बटोरते चलना चाहिए। अच्छा याद रखा जाए, बुरा भूलते रहा जाए। भाव प्रधान होता है। कहने का तरीका, लहजा अवश्य भिन्न हो सकता है।