विष्णु नागर
कुछ समय पहले की बात है। हवाईयात्रा पूरी हो चुकी थी और गंतव्य तक पहुंचने के बाद यात्री बाहर आ रहे थे। दो स्त्री और पुरुष भी आपस में बातें करते हुए साथ चल रहे थे। पुरुष अपने साथ चल रही स्त्री से कह रहा था- ‘मैं ढाका तो कई बार गया हूं, मगर अब तक उसे देखा नहीं।’ वे जरूर ही कोई ‘बड़े आदमी’ रहे होंगे और सच कहें तो हमारे देश में ‘बड़े आदमियों’ की कमी है नहीं, एक ढूंढ़ो तो हजार मिल जाते हैं। बल्कि अब तो लगता है कि लाख भी मिलने लगे हैं!
वरना आप ही बताइए, ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई आदमी बार-बार किसी शहर में जाए और उसे देख न पाए! और तो और, न देख पाने का कोई अफसोस भी उसकी बातों से नहीं झलकता हो। इसके अलावा, ऐसा भी नहीं लग रहा था कि वे किन्हीं वजहों से देख सकने में सक्षम नहीं थे, इसलिए गए तो बहुत बार, मगर क्या करें कि देख नहीं पाए। हालांकि वे बड़े आराम और विश्वास से चल रहे थे, कुछ इस अंदाज में कि मानो दुनिया को जीत लिया हो! इससे कोई भ्रम होने की गुंजाइश भी नहीं रह गई थी। ऐसा लग रहा था कि वे उस महिला पर रौब गांठ कर उसे और उसके देश को नीचा दिखा कर उस पर अपना प्रभाव जमाने की भोंडी कोशिश करने में लगे थे।
मेरे अंदाजे के हिसाब से वह महिला शायद बांग्लादेश की ही रही होगी। इस तरह उस महिला को उन्होंने एक झटके में उसके देश और शहर का कद बता दिया था कि है क्या तुम्हारे देश और शहर में कि मेरे जैसा आदमी वहां जाकर भी उसे अलग से देखने की तकलीफ उठाए! न्यूयार्क या लंदन देखने और घूमने का अभ्यासी आदमी आखिर ढाका घूम कर करे भी क्या, जो शायद मुंबई या दिल्ली जितना आगे बढ़ा हुआ, यानी ऊपर से दिखने वाले विकास की चकाचौंध से लबरेज शहर नहीं होगा। हालांकि इसका दूसरा पहलू यह है कि हमारा यही हिंदुस्तानी भाई किसी गोरे आदमी के आगे घिघियाने में भी शर्म महसूस नहीं करेगा। वहां उसका कथित समृद्ध भारतीय होने का गौरव भी नाक रगड़ने लगेगा।
दरअसल, एक छोटे-से अमीर वर्ग को अपने अज्ञान पर, दुनिया को जानने-समझने की अपनी अक्षमता पर भी गर्व होने लगा है और वह इसके लिए उत्सुक भी नहीं होता है। इधर कुछ समय से अपने अज्ञान और अकर्मण्यता पर इतराना बहुत बढ़ा है। कई लोग कभी किसी गांव में न जा पाने पर शर्मिंदा होने के बजाय सीना फुलाए घूमते मिल जाते हैं। उन्हें लगता है कि यह उनके जीवन की उपलब्धि है। इसी तरह, कई लोग हिंदीभाषी होकर भी हिंदी में लिखना न जानने पर घमंड करते मिल जाएंगे। कई लोग गरीबों से नफरत करना अपना पुनीत नागरिक कर्तव्य मानते हैं! उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे हिंदुस्तानी होने के शर्म से मुक्त हो गए हैं और अमेरिका या किसी पश्चिमी देश के नागरिक बन गए हैं! पैसे, जाति और अंगरेजी जानने का घमंड ऐसे लोगों से जो मूर्खता न करवा दे, वह कम ही है!
बहुत सारे लोगों की तरह मुझे भी कभी ढाका जाने का अवसर नहीं मिला। इस पर न मुझे खुशी है, न दुख। अवसर मिलता तो मैं जरूर जितना हो सकता ढाका घूमता, उतना ही जितना न्यूयार्क या बर्लिन या काठमांडो जाने पर घूमा था। हालांकि किसी शहर को जानने के लिए एक बार घूमना उसी तरह काफी नहीं है, जिस तरह किसी से एक बार मिल कर उसे जानने का मुगालता पालना। व्यक्ति की तरह शहरों की भी कई परतें होती हैं। किसी शहर में सिर्फ उतना ही नहीं होता, जितना बाहर से दिखता है। उसमें दृश्य से ज्यादा अदृश्य होता है और वह कई बार में भी नहीं दिखता। मगर कोई एक जिंदगी में क्या-क्या जान सकता है? दूसरी जिंदगी मिलती नहीं, इसलिए एक बार में जितना जाना जा सके, जानने की कोशिश हममें से कुछ लोग करते रहते हैं। फिर भी, हम कितना कम जान पाते हैं। अपने आसपास को भी जानना क्या इतना सरल है? इस जिंदगी की सीमाओं में रहते हुए भी जिन्होंने दुनिया में कहीं और किसी भी देश में रह कर या जीकर उन सीमाओं को लांघा है, उनके सामने हम अपना सिर ही झुका सकते हैं!
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