अनीता मिश्रा
जब लगता है कि हम बहुत आधुनिक हो गए हैं, समाज के तमाम बंधन टूट चुके हैं, तभी कोई ऐसी घटना घटती है जो यह भ्रम तोड़ देती है। यह घटना हमें अहसास कराती है कि हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं, जहां कई शताब्दियां एक साथ चल रही हैं। एक तरफ इक्कीसवीं शताब्दी का आधुनिक जीवन है, दूसरी ओर प्राचीन काल का सामंती भेदभाव वाला समाज भी मौजूद है। पिछले दिनों एक ऐसी ही घटना घटी, जिससे इस समाज का हिस्सा होने के नाते मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। मेरी घरेलू सहायिका सुबह से रात तक बहुत मेहनत करती हैं। वे खुद घरेलू हिंसा का शिकार रही हैं। उनके मुताबिक अब उनकी जिंदगी का एक ही मकसद है, अपनी बेटी को अंग्रेजी माध्यम के अच्छे स्कूल में पढ़ाना, जिससे उनकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए और उसकी तरह कभी हिंसा का शिकार न बने। वे अपने इस मकसद में कामयाब भी हुईं हैं और किसी तरह पैसे जोड़ कर अपनी बेटी को एक अच्छे स्कूल में पढ़ा रही हैं, जिसमें मध्यवर्गीय आय वाले संभ्रांत कहे जाने वाले घरों के बच्चे भी पढ़ते हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने बताया कि स्कूल में एक दिन दोपहर के भोजन के समय जब मेरी बच्ची ने अपना खाना कुछ सहपाठियों के साथ साझा करने की बात कही तो उसे सुनना पड़ा कि तुम्हारी मां बर्तन मांजती है, झाड़ू-पोंछा करती है… हम तुम्हारे टिफिन से खाना नहीं खा सकते हैं। यह सुन कर बच्ची रोने लगी।
यह महज कोई एक वाकया नहीं है। ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं, जिसमें किसी स्कूल में बच्चों ने महज जाति के सवाल पर ‘मिड-डे मील’ यानी दोपहर का भोजन करने से इनकार कर दिया। सवाल है कि छोटे बच्चों के मन में इस तरह की छुआछूत और भेदभाव वाली भावना कहां से आती होगी। जाहिर है, ये सब बातें उन्होंने अपने घर में सुनी होगी। अपने घरों से ही उन्हें ये ‘संस्कार’ मिले होंगे। अभी तक हमारे समाज के शिक्षित तबके में भी काफी लोगों में इस तरह की भावनाएं मौजूद हैं। यह सब बच्चे देखते हैं और उनके मन में भी इस तरह का वर्गीकरण पैदा हो जाता है। अगर घरों में बच्चों को बचपन से यह सब सुनने को न मिले तो उनके मन में कभी ऐसा भाव न आए कि जो व्यक्ति बर्तन मांजता है या साफ-सफाई करता है, वह किसी मामले में हमसे कमतर है। कोई इंसान कमतर नहीं होता है, इस तरह की शिक्षा बचपन से ही दी जानी चाहिए।
यह कमी समाज के साथ ही हमारी शिक्षा व्यवस्था की भी है। उसमें लोगों को इस तरह जागरूक नहीं बनाया जाता कि वे पढ़-लिख कर इस तरह की निम्न दर्जे की मानसिकता से मुक्त हो सकें। इस सिलसिले में पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले याद आती हैं, जिन्हें अपने दौर में लड़कियों की शिक्षा की शुरुआत के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले और फातिमा शेख के साथ मिल कर लड़कियों को पढ़ाने के साथ ही समाज में छुआछूत, जातिगत भेदभाव जैसी तमाम सामाजिक बुराइयों के खिलाफ काम किया। गौरतलब है कि सावित्रीबाई फुले का नौ साल की उम्र में बाल विवाह हो गया था। पढ़ाई के लिए उनके मन में इतना उत्साह था कि तमाम बाधाओं के बावजूद उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। उन्होंने लड़कियों के लिए पहला स्कूल भी खोला था। उनके इस उद्देश्य में कई तरह की बाधाएं डाली गईं। समाज के कथित उच्च कहे जाने वाले लोगों ने उनका स्कूल जाना मुश्किल कर दिया था। रास्ते में उन पर गोबर, मिट्टी फेंका जाता था। सावित्रीबाई अपने थैले में एक साड़ी अतिरिक्त लेकर चलती थीं। स्कूल जाकर खुद को साफ करके, कपड़े बदलतीं, तब पढ़ाने कक्षा में जाती थीं। इन सब बाधाओं ने उनके दृढ़ निश्चय को विचलित नहीं किया। उनके सामने मकसद साफ था कि लड़कियां पढ़-लिख लेंगी, तब दूसरे मुद्दों पर जागरूक होने के रास्ते खुद ही तैयार होंगे। शिक्षित लड़की अपने पैरों पर खड़ी होंगी तो समाज में बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी समस्याएं भी नहीं रहेंगी, न उसे विधवा या अन्य रूप में उपेक्षित जीवन जीना पड़ेगा। सावित्रीबाई फुले ने भविष्य की पीढ़ियों की लड़कियों को उस संघर्ष और पीड़ा से बचाने के लिए सब कुछ किया, जो उन्हें खुद झेलना पड़ा था।
लेकिन आज भी जब ऐसी घटनाएं सामने आती हैं, जिसमें जातिगत दुराग्रहों की वजह से किसी को अपमानित किया जाता है तो ऐसी पिछड़ी मानसिकता पर अफसोस होता है। मेरी एक दोस्त है, जो अक्सर इस पीड़ा का बयान करती है। इस सबने उसे इतना उद्वेलित किया कि जितना संभव हो पा रहा है, वह अलग-अलग जगहों पर सावित्रीबाई फुले के नाम पर पुस्तकालय की शुरुआत करा रही है। मेरा मानना है कि स्त्री के वास्तविक सशक्तिकरण का रास्ता शिक्षा ही है और इसकी प्रतीक सावित्रीबाई फुले हैं। विडंबना यह है कि भारत में मुख्यधारा कहे जाने वाले स्त्रीवाद के विचार और संघर्षों से सावित्रीबाई फुले का नाम अनुपस्थित रहा है। जबकि देशकाल के संदर्भ किसी समाज के सशक्तिकरण में सबसे उपयोगी और सहायक सिद्ध होते हैं।