कुछ दिन पहले मैं अपनी एक दोस्त के यहां गई थी। काफी देर बाद ध्यान आया तो मैंने उसकी छोटी बहन पीहू के बारे में पूछा कि वह कहां है। मुझे वह बहुत पसंद है। मुझसे खूब बातें करती है, बिंदास लड़की है। इतना खुल कर हंसती है कि उसकी हंसी समूचे घर में सुनाई देती है। मेरी दोस्त ने बताया कि उसे डांट पड़ी है और इसीलिए वह अपने कमरे में गुस्सा होकर बैठी है। मेरे लिए डांट पड़ने का कारण हैरान करने वाला था। पीहू घर की बालकनी से चार-पांच मकान दूर अपनी दोस्त से ऊंची आवाज में बात करते हुए ठहाके लगा कर हंस रही थी। पीहू को दादी ने इसी वजह से डांट दिया था। दोस्त ने बताया कि दादी कहती हैं कि लड़कियों को इतनी जोर से हंसना-बोलना नहीं चाहिए। मुझे याद है एक बार हम सब लड़कियां दीदी के साथ फिल्म देखने गए थे तो पीहू ने एक दृश्य में जोर से सीटी बजा दी थी। बाद में पीहू को इसके लिए बहुत डांट पड़ी थी।
रियो ओलंपिक के फाइनल में जब भारत की पीवी सिंधु के साथ स्पेन की कैरोलीना को खेलते समय कई बार चीखते और उस पर लोगों की टिप्पणी देखी तो मुझे पीहू की याद आई। भारतीय दर्शकों को कैरोलीना का इस तरह करना अजीब लगा। करोड़ों भारतीय दर्शक टीवी के सामने रियो ओलंपिक में बैडमिंटन का फाइनल पूरे उत्साह से देख रहे थे, क्योंकि इसमें स्वर्ण पदक की उम्मीद बन गई थी। वरना ऐसे खेल ज्यादातर वही देखते हैं, जिनकी इस खेल में रुचि हो। फाइनल में सिंधु स्पेन की कैरोलीना मरीन के सामने थीं। मरीन अपने हर शॉट के साथ चीख पड़तीं थीं। ब्रेक के दौरान भी वे जोर से चीखतीं खुद से बातें करती थीं। ऐसा करके वे शायद अपने भीतर खुद ही जोश और उत्साह भर रही थीं। सिंधु के साथ हमारा दिल था, इसलिए हम उन्हें देख रहे थे, लेकिन मरीन को नजरअंदाज करना मुश्किल था। सच कहूं तो उनका चीखना-चिल्लाना भारत के लोग नापसंद कर रहे थे। सोशल मीडिया पर भी उनकी चीखों को लेकर तमाम टिप्पणियां आर्इं। कई लोगों ने यहां तक लिखा कि ‘डायन’ की तरह चीख रही है! कुछ ने कहा कि उसके अंदर कोई ‘आत्मा’ है! इस तरह की निहायत बचकानी बातें उनके चिल्लाने को लेकर की गर्इं। इसके पीछे दुराग्रह और कुंठा के सिवा और क्या हो सकता है!
दरअसल, हम लड़कियों को इस तरह देखने के आदी नहीं हैं। हमारे यहां लड़कियों को सबसे पहली यही शिक्षा दी जाती है कि धीरे बोलना है, धीरे हंसना है। अपनी चाल भी धीमे रखनी है। शरीर की गतिविधि थोड़ी-सी भी ज्यादा सक्रिय या आक्रामक हुई नहीं कि कह दिया जाता है कि ‘मर्दों जैसी चाल-ढाल है’। यानी सहमी-सकुचाई हुई लड़की के रूप में हम पसंद किए जाते हैं और इसके लिए बचपन से ऐसा ही बनाने की ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। शास्त्रों, स्मृतियों जैसी तमाम धार्मिक किताबें स्त्री को ‘काबू में रखने’ के उपदेश से भरी हैं। ऐसे समाज में कोई स्त्री सार्वजनिक रूप से ऊंची आवाज में बात करे या चीखे, इसकी कल्पना मुश्किल है। लड़कियों ने बचपन से यही सीखा होता है कि अपने सारे मनोभाव को कैसे नियंत्रण में रखना है। अपने खिलाफ होने वाले तमाम जुल्म पर चुप रह जाने का ‘अभ्यास’ यहीं से होता है। एक इंसान को ‘बंधी हुई’ स्त्री के रूप में बनाए रखने के सारे सामाजिक उपकरण मौजूद हैं। अक्सर सिमोन द बोउवा की बात याद आती है कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है।’
पीवी सिंधु के बारे में इस तथ्य का भी पता चला कि उनके कोच पी गोपीचंद को इस बात के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी थी कि सिंधु को कैसे चीख कर खुद को जोश दिलाना है। सिंधु सकुचा रही थीं, लेकिन बहुत सख्त हिदायत देने के बाद ये तरीका सीख पार्इं। इसके बावजूद रियो ओलंपिक के फाइनल में बस वे थोड़ा जोश से ‘कम आॅन’ ही कह पाती थीं। जबकि कैरोलीना जम कर चीखती और अपनी गलतियों पर मुस्करा पड़ती थीं। जाहिर है, कैरोलीना की जिस तरह से परवरिश हुई है, उन्होंने मनोभावों को दबाना नहीं सीखा है। आक्रामकता हम भारत की लड़कियों की ‘बॉडी लैंग्वेज’ में है ही नहीं। पैदा होने के बाद सालों तक अपनी मां, दादी, नानी, सबसे हमने यही सीखा है कि लड़कियों को कैसे और कितना सिमट कर रहना चाहिए। हमारे लिए जो तयशुदा नियम थे, हम उनके हिसाब से चलते आए हैं। हमें इसका पता भी नहीं चला कि एक इंसान की तरह स्वाभाविक रूप से हमें कैसे जीना है। इसलिए जब हम लड़कियों को चीखते-चिल्लाते, सीटी बजाते, तेज चलते या हंसते देखते हैं तो कह देते हैं कि लड़की होकर ऐसा करती है। अब कामयाब लड़कियों ने अपने नियम खुद बनाने शुरू कर दिए हैं। अब समाज को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा।

