सुरेश कुमार मिश्रा‘उरतृप्त’

प्राचीन काल से ही हमारा देश श्रेष्ठ चरित्र का उपासक रहा है। हमारे देश में असंख्य महापुरुषों की ऐसी लंबी शृंखला रही है, जिन्होंने अपने जीवन में चरित्र बल से विश्व का मार्गदर्शन किया। चरित्र की उपजाऊ भूमि पर ही चिंतन का बीजारोपण होता है। चरित्र बल मनुष्य में निर्भीकता पैदा करता है।

हमारे नीतिकारों का भी कहना है कि निर्बल बलवान से डरता है, मूर्ख विद्वान से डरता है, निर्धन धनवान से डरता है, पर चरित्र बल से संपन्न मनुष्य से ये तीनों डरते हैं। खोया धन फिर प्राप्त हो सकता है, खोया स्वास्थ्य कुछ सीमा तक व्यायाम-योग से प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन जब एक बार चरित्र खो जाता है तब उसे फिर प्राप्त नहीं किया जा सकता।

रहीम ने कहा था- ‘रहीमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न उबरै, मोती मानुष चून।’ यहां रहीम का पानी अनेक अर्थों में है। लेकिन इस दोहे का मर्म मनुष्य के चरित्र की ओर इंगित करता है। मनुष्य का मान-सम्मान उसके चरित्र के सुरक्षित रहने तक रहता है। इसीलिए पाठ्यक्रमों में चरित्र की दृढ़ता वाले महापुरुषों की जीवनियां पढ़ाई जाती हैं।

आज समय के साथ चरित्र बदलते जा रहे हैं। आज लोगों को लगने लगा है कि असत्य बोलना, दुश्चरित्र होना, चुगली करना, आलसी होना, जो हो, जैसे हो वैसे न दिखना अब चलन में है। इस सबसे ही हमारा चरित्र ज्यादा उज्ज्वल दिखता बताया जाता है। अब ऐसे ही चरित्रों को लोग अपना आदर्श मानने लगे हैं। उनके आसपास भीड़ जुटने लगी है। घोर अराजकता का युग है कि सत्य को विपरीत हवाओं में अपने को सिद्ध करना पड़ता है। सारी शक्ति विपरीत हालात से लड़ने में चुक जाती है और झूठ-मक्कारी जीतती दिखती है। लोगों ने इसे ही अपना आदर्श चुन लिया है।

इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी अपनी ही आंखों के सामने चरित्र का ह्रास होते हुए देखना है। इससे बड़ा अभिशाप क्या हो सकता है। आज हम किस राष्ट्रीय चरित्र की बात कर रहे हैं? हम रोज देख रहे हैं कि सत्य की आवाज झूठ के शोर में दबा दी जाती है। किसी में ऐसे झूठों के विरुद्ध बोलने का साहस शेष नहीं रहा। जो दो-चार सत्य समझते भी हैं, उनका हौसला इतना इतना टूट चुका है कि वे कुछ भी कहते घबराते हैं। उन्हें लगने लगा है कि खुद को जिंदा रखना है तो संक्षिप्त रास्ता ही बढ़िया है। चाहे चरित्र पीछे रह जाए। यहां पेट भरने के नियम चरित्र को परिभाषित करते हैं।

हम पूरी तरह से भूल गए हैं कि ऐसे शिष्य के बारे में भी हमने कहानियों में पढ़ा, जो गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए पानी रोकने को रात भर खेत की मेड़ पर लेटा रहा। यह भी ध्यान नहीं आता कि सिख धर्म की रक्षा के लिए गुरु को अपने बच्चों को र्इंट में चिनते देखना मंजूर था, लेकिन अत्याचारियों के सामने समझौता या समर्पण करना मंजूर नहीं था।

हमें सुभाष याद नहीं आते कि ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’। हमें देश की आजादी की लड़ाई के दौरान के अपने ढेर सारे बलिदान देने वाले नायक याद नहीं आते। हमें कुछ भी याद नहीं रहता। बस याद रहता है तो केवल अपना स्वार्थ, अपनी लिप्सा, दूसरों को धक्का देकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति। सच के प्रति आंख मूंद बैठे रहने की आदत। यही वे भार हैं जो चरित्र को डुबोते रहते हैं।

सच यह है कि गिरते चरित्र की पीड़ा बड़ी असहनीय होती है। मन और आंखें भीग जाती हैं कि जिस चरित्र के लिए याद करवाया गया था कि जब चरित्र खत्म हो जाता है तब सब कुछ खो जाता है। आज उसे ही हम विस्मृत किए जा रहे हैं। झूठ सिर चढ़ कर बोल रहा है। आज बुरे लोग दावत उड़ा रहे हैं और अच्छे लोगों के लिए अपना सम्मान बचाना मुश्किल हो गया है। उन पर चौतरफा दबाव है।

बहुमत को तो सरल और आसान रास्ता चाहिए। वे दल-बदलू हैं। जहां अवसर दिखता है, उसी की गोद में जाकर बैठ जाते हैं। उसी के नाम की बीन बजाने लगते हैं, उसी की तरह बातें करने लगते हैं। अच्छा हुआ कि अब वैसे महाचरित्रों की पहचान की जाने लगी है और ऐसे लोगों से बचने की जरूरत महसूस की जाने लगी है।

भीड़ का हिस्सा बनने वालो से जरा रुकने, थमने और विचार करने का आग्रह करने का मन करता है। यह कहने का मन करता है कि ये रास्ता गलत है। जो चमकता है, सब सोना नहीं हुआ करता, तो ये मुलम्मा बहुत जल्द छूट जाएगा। भटकना नहीं चाहिए, जागने की जरूरत है। याद रखना चाहिए कि हमें क्या विरासत सौंपी गई है। हम किनका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

आखिरकार ईमानदारी ही जीतती है, यह सब भूल गए हैं क्या? स्वयं को पहचानने और शक्ति संपन्न समझने की जरूरत है। गलत कदम भूल कर भी नहीं उठाना चाहिए। चरित्र की दृढ़ता की व्यक्तित्व को बचाएगी। हमने बचपन से सुना है, लेकिन उसे गुनेंगे कब कि ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’। अगर जाग जाया जाए तो अब भी सच्चरित्र की स्थापना करना संभव है।