कुछ दिनों से एक नया दुपहिया वाहन लेने बारे में सोच रहा हूं। पिछला दुपहिया लगभग दस साल अपनी सेवा दे चुका है। जानकार मित्रों, तकनीकी मरम्मतबाज मिस्त्रियों के अलावा इंटरनेट पर भी देखने की नाकाम जुगत लगा रहा हूं। नोएडा में कार्यरत छोटे लड़के ने बताया कि ‘गूगल’ हर उत्पाद की अच्छाई ही बताएगा, इसलिए जो आपको अच्छी लगे, वही खरीदें।
कल घर में पत्नी ने उलझन के बारे में पूछा तो मैंने कहा कि उलझन तो नहीं, अलबत्ता कुछ असमंजस-सा है। दरअसल, हुआ यह कि एक समाचार चैनल देख रहा था तो एक विज्ञापन में फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार मोटरसाइकिल बेचने के लिए हाजिर हुए। तीन अक्षय थे। हर उम्र के वेश में तीन मोटरसाइकिल। मुझे लगा वे उस उत्पाद को खरीदने के लिए बिक्री एजेंट का काम कर रहे हैं। थोड़ी देर में एक दूसरे चैनल पर सचिन तेंदुलकर भी किसी मोटरसाइकिल को अपने जैसा दमदार बताते हुए एक दूसरा ब्रांड खरीदने के लिए रिझाते लगे।
आज के संचार युग में विज्ञापन उत्पाद बेचने का प्रमुख हथियार है। ज्यादातर बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पादों में भी नामी-गिरामी हस्तियों के द्वारा विज्ञापित करके उपभोक्ताओं को लुभाया जाता है। विज्ञापन पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं और उस खर्च को उत्पादित वस्तु की कीमत में जोड़ दिया जाता है। उपभोक्ता को नहीं चाहते हुए भी उसकी कीमत, यानी विज्ञापन का खर्च भी चुकाना पड़ता है।
इस विज्ञापन युद्ध में आए दिन न जाने क्या-क्या जुमले रच कर उपभोक्ताओं के सामने भ्रम परोसने की कोशिश की जाती है। वह त्वचा गोरी करने वाली क्रीम हो, घने-लंबे बालों का राज या फिर पेप्सी-कोक आदि। सेलेब्रिटियों को आगे कर लोगों की भावनाओं का शोषण किया जाता है। वे खिलाड़ी हों या फिल्मी कलाकार, इनके लाखों प्रशंसक होते हैं। बाजार के खिलाड़ी अच्छी तरह जानते हैं कि किस खिलाड़ी या फिल्मी सितारे की कितनी अपील आज जनता के बीच है और कैसे उसके जरिए करोड़ों का वारा-न्यारा किया जा सकता है।
वे जानते हैं कि विज्ञापन में जो राय हमारे वे चहेते सितारे देते हैं, वे न तो खुद संबंधित उत्पाद की गुणवत्ता के बारे में कुछ जानते हैं, न पता करना जरूरी समझते हैं। दिलचस्प यह भी है कि अपने द्वारा विज्ञापित उत्पाद को वे खुद निजी स्तर पर इस्तेमाल नहीं करते। इस तरह, तमाम जानी-मानी हस्तियां भी लालच के वशीभूत अपने प्रशंसकों से धोखा करती दिखती हैं। विडंबना यह है कि इस तरह विज्ञापित उत्पाद के गुण-दोष से किसी को कोई सरोकार नहीं होता, न उसकी कोई जिम्मेदारी लेता है। खरीदार किसी भी ब्रांड का चुनाव करे, उसे विज्ञापन का मूल्य देना ही पड़ता है।
अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत है। किसी उत्पाद की कीमत इस आधार पर तय होती है कि उस पर लगा मानव श्रम कितना है। इससे अधिक लिया गया मूल्य ‘सरप्लस वैल्यू’ यानी अतिरिक्त मुनाफा है, जो शोषण की श्रेणी में आता है। लेकिन आज उस अतिरिक्त मुनाफे के साथ-साथ किसी उत्पाद के अनुत्पादक खर्च को भी उपभोक्ताओं की जेब से वसूल लिया जाता है।
विचित्र यह है कि जब उसी उद्योग या कंपनी में काम करने वाले कुशल, अकुशल कर्मचारी महंगाई के अनुरूप अपनी तनख्वाह या मजदूरी में बढ़ोतरी की मांग करता है तो अपने लोग या प्रशासन आदि से मिल कर मजदूरों का लाठी-डंडे से दमन किया जाता है। विकास का यह क्रूर चेहरा अविज्ञापित यानी छिपा रहता है। हमारी जनता के साथ दिक्कत यह है कि इन तमाशों को वह महज चाव से देखती है। चतुर व्यापारी इसका खूब फायदा उठाते हैं।
इस तरह के विज्ञापन युद्ध की सफलता और प्रचार-तंत्र में इसकी भूमिका को देख कर लोकतंत्र को कब्जाने के लिए भी इसे आजमाने की कोशिशें सफल होती लगती हैं। विज्ञापन के चमत्कार का इस्तेमाल अब कई देशों की सरकारों को बनाने और हटाने के लिए जनता के सोचने-समझने के तरीके को निर्धारित करने में किया जाने लगा है। यह कहना आधा-अधूरा सच परोसना है कि विज्ञापन मात्र विज्ञापन होता है, इसका कोई जमीनी आधार नहीं होता। जरा गंभीरता से सोचने पर बात दूर तक जाती लगती है।
दरअसल, उपभोक्ता से वसूली गई कीमत और अतिरिक्त मूल्य को अब नवउदारवाद और वैश्वीकरण के नाम पर सामाजिक एजेंडे से बाहर कर खुली लूट की गलाकाट स्पर्धा में बदल दिया गया है। बहरहाल, मजबूरी में दुपहिया के विज्ञापन का अनचाहा मूल्य तो किसी तरह चुका दिया जाएगा, लेकिन सरकार का क्या किया जाए जो विज्ञापन को प्रायोजित करने वालों के पक्ष में फैसले करके आमजन को दरकिनार कर रही है। अब हमें सोचना और विचार करना है या फिर विज्ञापन की कीमत इस देश को चुकाते हुए चुपचाप देखना है।
केसी बब्बर
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