भारत में त्योहार समाज को जीवंत बनाए रखने में मददगार साबित होते रहे हैं। कुछ समय पहले बीती होली को इस कसौटी पर एक खास उत्सव माना जाता है। इस साल हमारे घर के एक प्रसंग ने मुझे सोचने के लिए एक बड़ा फलक खोल दिया। मद्यपान या किसी भी प्रकार के नशे से सर्वथा दूर हमारा परिवार परंपरा के निर्वाह के तौर पर ठंडई के साथ थोड़ी मात्रा में भांग के सेवन की स्वतंत्रता होली के मौके पर ले लेता है। स्कूली शिक्षा के अंतिम पड़ाव पर खड़ी मेरी बिटिया ने बमुश्किल चार घूंट ठंडई के ले लिए। इस घोल का अप्रत्याशित रूप से तेज असर हुआ और वह अपनी रौ में बह निकली। तकरीबन चार घंटे तक वह लगातार बोलती रही, ठहाके लगाती रही और अपने जीवन दर्शन से सबको परिचित करा देने की कोशिश करती रही। उच्छृंखलता और अश्लीलता से दूर उसकी बातों में एक तरफ जहां बाल मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी, वहीं गंभीरता और परिपक्वता का एक विलक्षण मिश्रण था। अपनी आशाओं, आकांक्षाओं, बाधाओं, सीमाओं और अड़चनों पर की गई उसकी बेबाक टिप्पणी मुझे आह्लादित करने के साथ-साथ मेरे अंदर विस्मय का बीजारोपण भी कर रही थी।
मैं दंग था यह सोच कर कि एक पिता अपनी संतान से इतना अपरिचित कैसे रह सकता है! जिस पौधे को सींच कर इतना बड़ा किया है, उसकी विशेषताओं और विशिष्टताओं से एक माली अनजान कैसे रह सकता है? इस किशोर पौधे को अपने स्नेह की नियमित खुराक से सींचते हुए माली ने एक सुदृढ़ वटवृक्ष की कल्पना की थी, लेकिन यह पौधा इतनी सारी संभावनाओं और झंझावातों को अपने हृदय में समेटे बैठा है- प्रशांत, नीरव, निश्छल!
आज के समय की शायद सबसे बड़ी त्रासदी यही है। हमारी भौतिक उपलब्धियों और आधुनिकता की अंधी दौड़ ने हमें इतना आत्मकेंद्रित कर दिया है कि हम भीड़ में भी बेगाने बने रहते हैं। युवावस्था की दहलीज पर खड़े बच्चों से माता-पिता का अपरिचय एक गंभीर संकेत देता है। पिछले दशकों में शहरी मध्यवर्ग की क्रयशक्ति के साथ उसकी आवश्यकताएं और अपेक्षाएं भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी हैं। गरीबी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार से जूझते एक विकासशील देश के नव धनिकों के बीच पसरा निर्लज्ज उपभोक्तावाद न केवल सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के लिए काफी है, बल्कि संसाधनों के समान वितरण को भी आपराधिक रूप से बाधित करता है। भरे हुए पेट को फिर-फिर भरने की इस अमानवीय प्रवृत्ति ने ही पारस्परिक अपरिचय को जन्म दिया है।
दरअसल, घर से बाहर तक व्याप्त इस कृत्रिम या ओढ़े हुए अपरिचय ने मामूली समस्याओं को नासूर बन जाने दिया है। समृद्धि के बीच अवसाद, आनंद के अतिरेक के बीच असंतोष या फिर सामंजस्य के दिखावे के अंदर पैठा वैमनस्य हमारी कुंठाओं का ही प्रतिफल है। हर रोज हमें झकझोर देने वाली आत्महत्या, बलात्कार, तलाक, रोड-रेज यानी सड़क पर लड़ाई-झगड़े और हिंसक आंदोलनों की घटनाएं इन्हीं कुंठाओं की मूर्त अभिव्यक्ति हैं। हर कीमत पर जीत जाने की हठधर्मिता ने हमें पथभ्रष्ट तो किया ही है, मानवीय मूल्यों को भी स्खलित किया है। वक्त आ गया है कि हम अपरिचय के इस वातावरण को यथाशीघ्र समाप्त करें। पहले अपने कुटुंब के लोगों को धैर्यपूर्वक सुनें, उनकी जरूरतों, पसंद-नापसंद को समझें, प्रतिकूल परिस्थिति में उनके पास वाट्सऐप के सहारे नहीं, खुद उपस्थित रहें। जब हम ऐसा कर पाने में सफल हो जाएं तो अपनी इस सहृदयता और सौजन्य को घर की चारदिवारी से बाहर ले जाकर पड़ोसियों, मित्रों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों पर बिखेरना शुरू कर दें। अचानक हमें महसूस होगा कि एक अमूल्य निधि और अकूत संपत्ति के मालिक हैं।
हमारी एक मुस्कराहट, मदद के लिए उठे हमारे हाथ का एक कोमल स्पर्श और संवेदना-सिक्त एक प्रयास असंख्य लोगों के जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लाने के बड़े कारण साबित हो सकते हैं। मानवमात्र के कल्याण के लिए जब हम ये सारे प्रयास कर रहे होंगे तो हमारा अवचेतन मन प्रकृति, पर्यावरण, वातावरण और मानवेतर जीवों के प्रति हमारी जिम्मेवारियों की भी चिंता कर रहा होगा। प्रकृति और पर्यावरण से बढ़ता हमारा अपरिचय पृथ्वी पर जीवन को संकट में डालने वाला है। हम जितनी जल्दी सतर्क हो जाएं, उतना अच्छा।
इस क्षणभंगुर जीवन में अपने सीमित संसाधनों का समझदारी से दोहन करें। परिवार हमारे जीवन की धुरी है। अगर केंद्र ही संकट में आ गया तो विपर्यय को रोकना असंभव होगा। यह बहुत बड़ा काम है। सबसे पहले मन में घर कर चुके कलुष को निकाल बाहर करना होगा। बर्तन के अंदर की यह कालिख ठीक नहीं। ऊपर से मांजो न मांजो, अंदर की सफाई करनी ही होगी। अपनी उम्र चाहे जितनी भी हो गई हो, एक बार फिर से शिशु बनना पड़ेगा। सरसों के पीले फूलों को देख कर आनंदित होना होगा, बच्चों के साथ ठहाके लगाने होंगे, हृदय और मस्तिष्क पर रखे बोझ को झटक कर दूर फेंकना होगा। एक निर्दोष उत्फुल्लता के साथ हम जीवन जीने का प्रण ले सकते हैं, बशर्ते उसमें अपेक्षाओं का बंधन न हो।