मुंबई उन दिनों बड़ी समृद्ध, बड़ी बख्तावर थी। उर्दू के कई लेखकों से सजी और हिंदी के कई दिग्गजों से पगी। यों लगता था, जैसे दक्कन की शहजादी की अंगूठी में भगवान ने कई हीरे-जवाहरात, माणिक-मोती और नीलम भर दिए हों। हिंदी पत्रिकाओं की साम्राज्ञी ‘धर्मयुग’ तब घर-घर में साहित्य और संगीत की, खिलखिलाहट, ज्ञान और कविता की जैसे मिलनस्थली थी। हर भाषा का दिग्गज उसमें छपने के बाद एक तरह से भारत के सभी साहित्यप्रेमियों के घर का सदस्य हो जाता था। आज भी हजारों ‘धर्मयुगिए’ हैं जो उन दिनों को बड़ी हसरत से याद करते हैं। फिलहाल मैं उर्दू के कहानी-सम्राट राजिंदर सिंह बेदीजी को उनकी पोती बन्नो के बहाने याद कर रही हूं।

1983-84 का जमाना था। मुझे आसमान से झांकते हुए कई चेहरे याद आ रहे हैं। इस्मत चुगताई, सरदार जाफरी, कुर्रतुल ऐन हैदर, जांनिसार अख्तर, कैफ़ी आजमी और मज़रूह सुल्तानपुरी के साथ और कई। उस वक्त बेदी साहब के पेट में कैंसर था और वे आर-पार की लड़ाई कर रहे थे। उनके बेटे फिल्म निर्देशक नरेंद्र बेदी का इंतकाल हो चुका था और उनकी बहू वीना अपने बच्चों के साथ अपने ससुर के पास ही रहती थी। वह पंजाब की थी, सीधी-सी लड़की। वह बेदी साहब की बहुत सेवा करती थी। दो बेटों के साथ एक बेटी भी याद आती है… छोटी-सी बांकी-सी बेटी। वे तब बांद्रा में रहते थे। उनकी बहू कहती- ‘पद्माजी, कभी बाऊजी के पास पगड़ी बांधने का समय नहीं होता था। आज बीमार हैं तो देखने भी नहीं आता।’ यह बात मुझे चुभ गई। दरअसल, बेदी साहब के पुत्र मेरे पति के दोस्त भी थे।

पर बेदी साहब तो एक जमाना थे। मैं अक्सर उनके समकालीनों को लेकर उनके घर जाती। कभी इस्मत आपा, कभी पंडित नरेंद्र शर्मा, कभी अमृतलाल नागर, कभी कोई और लेखक। माजी में झांकने का बड़ा शौक था मुझे। वे सब बातें करते, मैं एक तरफ बैठ कर सुनती और निहाल होती रहती। एक बार मैं इस्मत आपा को लेकर गई तो उन्हें देख कर रोते-रोते बोले- ‘अरे इस्मत, कल मैं चारपाई से गिर गया था। मेरी बहू ने उठा कर मुझे चारपाई पर डाला और दर्द वाली जगह पर सेंका। तब कुछ फर्क पड़ा। ये औरत पता नहीं क्या चीज है! यह शायद मेरी मां थी।’ बेदी साहब फिर रोने लगे। इस्मत आपा ने कहा- ‘बेदी, तुम ये रोते क्यों हो। रोते हुए मर्द अच्छे नहीं लगते।’ बेदी साहब ने बच्चे की तरह आपा की तरफ देखा और चुप हो गए।

जब हम वापस जा रहे थे तो इस्मत आपा बता रही थीं कि बेदी की बीवी कमाल की औरत थी। हम एक बार कहीं खाना खाने गए थे तो वह थोड़ी-थोड़ी देर बाद उठ कर बेदी को कभी कबाब, कभी सूखा मीट तो कभी कुछ और देने जाती। गजब का समर्पण भाव देखा मैंने उसके भीतर। मैंने कहा कि तुम चुपचाप बैठ कर खाओ, वह खुद ले आएगा। यह सुन कर वह कहने लगी कि तुझे शर्म नहीं आती! जाओ, तुम भी अपने पति को प्लेट में डाल कर दो। बेदी साहब बड़े खुशनसीब थे।

खैर, आसपास उनकी पोती घूमती हुई दिखाई देती तो वे कहते- ‘ये मेरी पोती है। मैं इसे बन्नो कहता हूं।’ अपना सारा लाड़ उस पर लुटा कर बेदी साहब खुश होते रहते। क्या आदमी थे! उनकी वह पोती बन्नो आज इला बेदी दत्ता है। कुछ समय पहले बनी मारधाड़ वाली बहुचर्चित फिल्म ‘अग्निपथ’ की पटकथा उन्होंने लिखी है। उनके पिता फिल्में बनाते थे, पर कलम का जादू तो बेदी साहब के पास ही था। उम्मीद है कि कलम का वह जादू कभी निश्चय ही बन्नो की अंगुलियों से टप-टप झरेगा। एक दिन मेरे बुलाने पर वे मुझसे मिलने अपनी बेटी के साथ आर्इं, जैसे बचपन की बन्नो और आज की बन्नो। अब यह बन्नो मीडिया में काम करती है, एक धारावाहिक भी बना रही है। सुनती हूं, उसकी कलम में धार है।

बेदी साहब की कोई भी कहानी अपने समय का ही पूरा दस्तावेज नहीं है, आगे के समय का भी आईना है। बन्नो की ‘लाजवंती’ कहानी पर नजर है। फिल्म बनाना जोखिम का काम है, पर बकौल फ़ैज़- ‘ये बाजी इश्क की बाजी है/ जब चाहे लगा दो डर कैसा/ गर जीत गए तो क्या कहने/ हारे भी तो बाजी मात नहीं…!’