सुरेश सेठ

लेकिन इस देश में महामारी कब आती है, कब अपना रूप दिखाती है और कब अलविदा लेकर चली जाती है, कुछ पता नहीं चलता, क्योंकि यहां महामारियों की कतार लगी है। एक महामारी हमारी जिंदगियों के मंच से विदा भी नहीं होती कि एक और महामरी मंच पर उभर आती है कि जैसे उसके हटने का इंतजार ही कर रही हो।

आम आदमी परेशान और जीने मरने का वही सिलसिला फिर से शुरू हो जाता है। लोग जो सुनते हैं, केवल खबरों से सुनते हैं। एक सच जो आज सच होता है, कल झूठा हो जाता है। पहले सुनते थे कि लाखों लोग बीमार पड़ रहे हैं। अस्पतालों में उनके लिए बिस्तर नहीं हैं। दम घुटने लगे तो प्राण वायु के सिलेंडर नहीं मिलते। फिर एक प्राणरक्षक दवा की चर्चा होने लगी। उससे काले बाजार सक्रिय नजर आने लगे। यहां सब कुछ मिल जाता था, केवल अपनी फटी जेब और ढीली करने का यह सिलसिला तो चलता ही रहता है।

मंडियों के सरगना नाम बदलकर एक और प्राणरक्षक दवा ले आते हैं और फिर वैसी ही खबरें सुनने को मिलने लगती हैं। जो सुना था, वह यह था कि महामारी में बहुत से लोग मर गए। दाहस्थलों में जगह नहीं है। बाहर लाशों की कतार लगी है। सही जगह दाहकर्म हो सके, इसके लिए वहां के रखवालों के सामने फिर जेब ढीली करनी पड़ती है। भीड़ बहुत थी, और मुंह ढकी लाशें। भूल से लाश किसी की दूसरे की जगह जल गई।

सब्र कीजिए, यह भीड़ भरा मुल्क है। कतार लगी है, भूख की, बीमारी की। उसके पीछे-पीछे चली आ रही है बेरोजगारी और पीठ थपथपा रहे हैं भ्रष्टाचारियों के दावे। ऐसे में एक स्वर यह भी उठा कि ‘बच्चे ज्यादा पैदा करोगे, तो सजा तजवीज हो’, कोई नहीं माना। लोगों की रोटी का ठिकाना न पहले था, न अब है।

यह धर्म प्राण देश है। दानवीरों की कमी नहीं। गाढ़े वक्त के पसीने की तरह प्रकट होने लगे अर्धकंकाल लाशों का नियम संयम से दाहकर्म होगा। लेकिन जो जीते जी कंकाल हो गए, उनकी खबर लेने का काम इन दानवीरों का नहीं। वे तो मीडिया से चित्र खिंचवा आगे बढ़ गए। जिंदा मानव कंकालों की खबर खैराती व्यवस्था लेती है। रियायती दरों पर मिलता राशन खबर लेगा। मुफ्त रोटी बांटते भोजनालय लेंगे। कहा गया कि हमने इस विकट समय में अस्सी करोड़ लोगों को भोजन खिलाया। देश की साठ फीसद आबादी बनती है यह।

व्यवस्था जब उनके लिए रोजी रोजगार का वसीला उपलब्ध नहीं कर सकती, तो वे भोजन नहीं मांगेंगे तो और क्या करेंगे? न्याय पीठ से खबर आई, ‘भूख से किसी को मरने न दिया जाए। रोटी-पानी उनका जन्मसिद्ध संवैधानिक अधिकार है।’ किसी ने पूछा, और काम करने का अधिकार? उसकी बात अभी न करें। जवाब टेढ़े हो जाते हैं। जनाब राजनीतिक दर्शन के खेमे में बंट जाते हैं। वैर-विरोध और हिंसा को जन्म देते हैं। इसलिए वह पुराना मूलमंत्र दोहराओ, ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सब के दाता राम।’

लेकिन हम पंछी हैं या अजगर, अभी इसका फैसला नहीं हो सका। इसलिए जब तक फैसला नहीं होता, इस आपाधापीवाद को जिंदा रखा जाए और विश्व में प्रसारित भुखमरी के इस सूचकांक को नजरअंदाज कर दिया जाए, जिसकी खोज है, ‘इन बरसों में भारत भुखमरी सूचकांक में गिरावट की दुगनी सीढ़ियां उतर गया है।’ यानी भूख से मरने वालों की संख्या दोगुनी हो गई। यह गलत है साब! बिल्कुल गलत है! आंकड़े विदेश से आए हैं! हमें तो इसमें कोई विदेशी षड्यंत्र लगता है।

अब देखो कि हमने तो सरकारी तौर पर यह कहा था कि महामारी की लहरों में देश में सवा चार लाख से अधिक लोग नहीं मरे और विदेशी विश्वविद्यालयों के नकचढ़े शोधछात्र थीसिस बांचते हैं कि कम से कम तीस-चालीस लाख लोग मरे! माना कि यह त्रासदी थी, लेकिन इतनी बड़ी भी नहीं कि आप इस भारत-पाक विभाजन में पलायन करते लोगों से बड़ी मृत्यु त्रसदी मान लें।

जनाब इन शोर मचाने वालों की परवाह न कीजिए। उनके लिए तो यही फरमा दें शायराना अंदाज में, ‘कि बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो कतरा-ए-खून निकला।’ अब कितना शोर हुआ था कि हजारों लोग उस महामारी में आक्सीजन न मिलने से चल बसे! आक्सीजन तो अभी भी नहीं, लेकिन उधर जाच-पड़ताल की तलाश की रिपोर्ट मंगवाई तो पाया कि एक भी आदमी आक्सीजन न मिलने के कारण नहीं मरा, लोग खुश-ओ-खुर्रम हैं। अब देख लें ऐसे मसलों को। फिर शोर मचेगा।

नतीजा एक दिन भी संसद ढंग से नहीं चलने दी जाती। विकास की गाड़ी चलने से पहले ही रोक दी जाती है। ‘करवाएंगे साहिब, इसकी जांच भी करवा देंगे।’ वे बोलते हैं। लेकिन फिलहाल हमें तो अभी से इसके पीछे विदेशी हाथ साफ नजर आ रहा है! अब इसे कैसे मरोड़ कर बाहर कर दें, यही सोचना है!