आज बात साल 1978 के एक हत्याकांड की जिसने देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को दहला दिया था। रंगा और बिल्ला नाम के दो खूंखार अपराधियों द्वारा अंजाम दी गई इस वारदात ने मोरारजी देसाई की सरकार को हिलाकर रख दिया था। हुआ कुछ यूं कि दिल्ली के एक नेवी अफसर मदन मोहन चोपड़ा की बेटी गीता और बेटा संजय अपने घर से ऑल इंडिया रेडियो के लिए निकले पर वह रास्ते से ही गायब हो गए। उस दिन तारीख थी 26 अगस्त और साल था 1978।

26 अगस्त 1978 को दिल्ली के धौला कुआं इलाके में रहने वाले नेवी अफसर मदन मोहन चोपड़ा के बच्चे गीता और संजय लापता हुए। इस मामले में एक राहगीर ने पुलिस को सूचना दी कि फिएट कार में एक लड़की मदद के चिल्ला रही थी। पुलिस ने शिकायत दर्ज कर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब सहित यूपी में तलाशी अभियान जारी रखा पर कोई खबर नहीं। तीन दिन बीत जाने के बाद 29 अगस्त को एक चरवाहे को रिज के जंगलों में सड़क किनारे लड़की और लड़के की लाश मिली, जिनकी पहचान गीता और संजय के रूप में हुई।

इस केस में पोस्टमार्टम रिपोर्ट सामने आई तो पता चला कि दोनों की हत्या 26 अगस्त की रात में 10 बजे के करीब की गई। साथ ही ऑटोप्सी रिपोर्ट में भी बच्ची के साथ दुष्कर्म की बात सामने नहीं आई थी। इस बात पर सवाल भी खड़े हुए लेकिन डॉक्टरों के मुताबिक बॉडी की हालत बेहद खराब हो चुकी थी, जिससे आधिकारिक तौर पर रेप की पुष्टि नहीं हुई। साथ ही पता चला कि इसे लूट के इरादे से अंजाम नहीं दिया गया था। क्योंकि, जहां गीता के पास उसकी सोने की अंगूठी मिली तो वहीं संजय के पास से पैसे भी मिले थे। इन सबके बीच कोई नहीं मिल रहा था तो वह कातिल थे।

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संसद में मचने वाले हल्ले और इस निर्मम हत्याकांड ने पीएम मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री को टेंशन में डाल दिया था। इस केस को लेकर जनता सड़कों पर थी और फिर 31 अगस्त को हाथ लगी एक फिएट कार जिसमें अपहरण किया गया था। लेकिन कार के मालिक ने पहले ही गाड़ी चोरी की शिकायत दे रखी थी। अब पुलिस केस की फाइलों और फॉरेंसिक रिपोर्ट में व्यस्त थी कि तभी उन्हें जांच रिपोर्ट के कुछ हिस्से रंगा और बिल्ला का हाथ होने का इशारा कर रहे थे।

दरअसल, रंगा का पूरा नाम कुलजीत सिंह और बिल्ला का नाम जसबीर सिंह था। रंगा कभी मुंबई में टैक्सी चलाता था और वहीं उसकी दोस्ती बिल्ला से हुई थी। बिल्ला अपराध की दुनिया का पुराना खिलाड़ी था और जेल भी जा चुका था। इस केस में भी रंगा-बिल्ला का हाथ होने के बाद अखबार-मैगजीन और सार्वजनिक जगहें दोनों की तस्वीरों से पटी पड़ी थी। इस बड़े मामले को अंजाम देने के बाद रंगा-बिल्ला फरार थे, लेकिन 8 अगस्त 1978 को वह पकड़े गए।

8 अगस्त को पुलिस के नजरों से बचते-बचाते रंगा-बिल्ला कालका मेल में सैनिकों के डिब्बे में जा चढ़े। जब डिब्बे के भीतर सैनिकों ने इनसे पूछताछ की तो दोनों लड़ बैठे। इसी बीच ए. वी. शेट्टी नाम के लांस नायक ने रंगा-बिल्ला को पहचान लिया, क्योंकि उन्होंने एक अखबार में इन आरोपियों की फोटो देखी थी। इसके बाद रंगा-बिल्ला को पुलिस को सौंप दिया गया। पुलिस ने पूछताछ की तो पता चला कि अपहरण फिरौती के लिए किया गया था लेकिन पिता के सेना में होने के चलते बच्चों की हत्या कर दी गई थी। फिर केस में पुलिस ने बयान, डीएनए समेत सभी जरूरी सबूत जुटाए।

इस मामले में सेशन कोर्ट ने पहले रंगा-बिल्ला को फांसी की सजा सुनाई फिर 26 नवंबर 1979 को हाई कोर्ट ने सेशन कोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी। इसके बाद, रंगा ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील डाली लेकिन कोई राहत नहीं मिली। वहीं, 31 जनवरी 1982 में दोनों को फांसी दे दी गई। बता दें कि, सरकार आज भी गीता और संजय के नाम पर देश में बहादुर बच्चों को ब्रेवरी अवार्ड देती है।