आज एक अहम सवाल यह है कि जिस तकनीक को कई समस्याओं का समाधान माना गया था, उसमें ऐसे हालात क्यों पैदा हुए हैं कि सुविधा और सुरक्षा दो अलहदा मामले बन गए हैं। एक महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या इन साइबर अपराधों का कोई अंत है। अगर हम इस पर नजर दौड़ाएं कि साइबर अपराधों के इस सिलसिले की हमारी देश में कब अहम शुरुआत हुई थी, तो इस बारे में तथ्य यह है कि इसकी शुरुआत का एक सिरा देश में 1 जुलाई, 2015 से डिजिटल इंडिया नामक कार्यक्रम के आरंभ से जुड़ता है।
इस अभियान का मकसद देश के गांव-गांव में ब्राडबैंड पहुंचाना और हर नागरिक को तेज रफ्तार इंटरनेट से जोड़ना है। फायदा यह बताया गया था कि इससे प्रत्येक नागरिक को सरकारी योजनाओं का लाभ मिलेगा और बैंकिंग, पढ़ाई, खरीदारी के अलावा असंख्य काम घर बैठे हो सकेंगे।
कोई शक नहीं कि इन बीते छह वर्षों में इंटरनेट आधारित कामकाज की यह व्यवस्था हमारे जीवन में काफी गहरे पैठ गई है। खासकर कोरोना काल में तो हालात ऐसे बने कि इंटरनेट के बगैर हर काम नामुमकिन लगने लगा। इस दौर में महसूस हुआ कि हर काम के वर्चुअल हो जाने के बेशुमार फायदे हैं। लेकिन जितने कसीदे घर बैठे कामकाज की इस “वर्चुअल” व्यवस्था को लेकर कढ़े गए हैं, उससे कई गुना ज्यादा सिरदर्द “हैंकरों”, “साइबर फर्जीवाड़े” करने वाले उन अनगिनत लोगों की फौज ने पैदा किया है।
“वर्चुअल” व्यवस्था” को “हैंकरों”, “साइबर फर्जीवाड़े” करने वालों ने लगाया पलीता
कह सकते हैं कि डिजिटल इंडिया की एक बेहद सकारात्मक पहल को ज्यादातर मामलों में बेरोजगार और आइटी के बेहद मामूली जानकारों ने पलीता लगा दिया है। हैरानी होती है कि सरकारी महकमों और जनता को साइबर छल-छद्म से बचाने का जिम्मा जिन पढ़े-लिखे, क्षमतावान और होनहार कर्मचारियों-अधिकारियों पर है, उन्हें अल्पशिक्षित, कम जानकार और कई बार बेरोजगारों की फौज न्यूनतम संसाधनों के बल पर की जा रही साइबर ठगी से मुंह चिढ़ा रही है।
इस बारे में एक वैश्विक विश्लेषण अमेरिका आधारित “वेरिजान बिजनेस” द्वारा “डेटा ब्रीच इन्वेस्टिगेशन्स” यानी डेटा में सेंध लगाने की जांच की गई। इस पर मई 2021 में तैयार रिपोर्ट में बताया गया कि वर्ष 2021 में दौरान 88 देशों, 12 उद्योगों और तीन विश्व-क्षेत्रों में फैले दायरे में कुल 29,207 इंटरनेट सुरक्षा संबंधी घटनाओं का विश्लेषण किया गया।
इस विश्लेषण के आधार पर दुनिया भर में डेटा उल्लंघन यानी डिजिटल सेंधमारी के 5,258 मामले दर्ज किए गए, जो साल 2020 की तुलना में काफी ज्यादा थे। इस सेंधमारी में एक किस्म है “फिशिंग” की, यानी बैंकों के क्रेडिट कार्ड आदि की जानकारी चुराकर रकम उड़ा लेना। दूसरी किस्म है “रैंसमवेयर” यानी फिरौती की। इसमें लोगों, कंपनियों के कंप्यूटर नेटवर्क पर साइबर हमला कर उन्हें अपने कब्जे में ले लिया जाता है और इसके बदले में भारी-भरकम फिरौती वसूल की जाती है।
तीसरी किस्म सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों को किसी न किसी तरीके से अपमानित करने वाले अपराध की है, जो “सुल्ली-बुल्ली बाई” जैसे ऐप की मार्फत किए जा रहे हैं। पिछले दो-तीन साल के अरसे में ही आम और खास लोगों के बैंक खातों, निजता यानी पहचान से जुड़े डेटा पर हाथ साफ करने के मामलों में बताया जाता है कि करीब साढ़े छह सौ फीसद का इजाफा हुआ है।
सालाना छह-सात लाख तक हो गई भारत में ऐसी घटनाओं की संख्या
सुरक्षा फर्म “बाराकुडा नेटवर्क” के मुताबिक भारत में ऐसी घटनाओं की सालाना संख्या छह-सात लाख तक हो गई है। यहां बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर ऐसे साइबर अपराधों की रोकथाम कैसे हो। कानूनी उपाय इसका एक रास्ता है, लेकिन बात सिर्फ कानून बनाने मात्र से नहीं बन रही है। चूंकि साइबर अपराधी अब अंतरर्देशीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गिरोह बनाकर काम कर रहे हैं, इसलिए खातों से उड़ाई गई रकम रातोंरात एक देश से बाहर दूसरे ठिकानों पर चली जाती है।
ऐसे में देश के कानून बेमानी हो जाते हैं। सबसे ज्यादा मुश्किल उन लोगों के लिए है जिन्हें बैंकिंग, खरीदारी के “वर्चुअल” विकल्प मजबूरी में अपनाने पड़े हैं और जिन्हें इन साइबर उपायों की समझ और जानकारी बिल्कुल नहीं है।
जाहिर है, डिजिटल इंतजामों को जरूरी बनाने के साथ सरकार का जिम्मा यह बनता है कि वह कानून बनाने के साथ कड़ी सजाओं के प्रावधान करे और साइबर थानों में दर्ज हर शिकायत पर कार्रवाई सुनिश्चित करे। अभी तो आलम यह है कि अगर किसी ने आपके डेबिट कार्ड की “क्लोनिंग” करके किसी एटीएम से पैसे निकाल लिए हैं, तो साइबर पुलिस हील-हुज्जत के बाद शिकायत दर्ज करने के अलावा कोई और काम नहीं करती।
अक्सर पीड़ितों को खुद ही बैंकों और पुलिस थानों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। ऐसे में अगर साइबर अपराधियों की धर-पकड़ कर उन्हें बेहद सख्त सजा देने में तेजी नहीं लाई गई, तो यह मर्ज एक लाइलाज महामारी की तरह ही बढ़ता जाएगा।
सेंधमारी के इलाके
बाइल नेटवर्क में सेंध लगाने के लिए ठगी का सबसे आम तरीका वीओआइपी आधारित साफ्टवेयर या क्रेजी कालर वेबसाइट की मार्फत किसी व्यक्ति की कालर आइडी का इस्तेमाल करते हुए उससे संबंधित लोगों को फर्जी काल करना या संदेश भेजना है। यहां बड़ा सवाल इस हाईटेक ठगी की रोकथाम का है।
कहने को तो देश में ऐसे अपराधों की धर-पकड़ के लिए साइबर थाने बनाए गए हैं, पर सच्चाई यह है कि हमारे देश में व्यक्तिगत सतर्कता और जागरूकता के अलावा इससे बचाने वाला कोई पुख्ता तंत्र विकसित नहीं हुआ है। ऐसे मामलों की रोकथाम का जिम्मा हमारे जिस दूरसंचार नियामक- ट्राई के पास है, वह सिर्फ जालसाज के रूप में पहचानी गई वेबसाइटों, मालवेयर या ऐप के भारत में संचालन पर प्रतिबंध मात्र लगा सकता है। लेकिन ऐसी ज्यादातर गतिविधियां प्राक्सी यानी छद्म सर्वर या फिर वीपीएन यानी “वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क” के जरिए भारत के बाहर से संचालित होती हैं। यही वजह है कि जालसाज विदेश में बैठकर आसानी से विभिन्न वेबसाइटों या ऐप के जरिए धोखाधड़ी का नेटवर्क बना लेते और लोगों को चूना लगाते हैं।
हालांकि मोबाइल स्पूफिंग से लोग अगर बचने के लिए मदद करने से पहले पलटकर संबंधित व्यक्ति को फोन करके पूछ लें कि क्या उसे वास्तव में मदद की जरूरत है, तो मामले की कलई खुल सकती है और ठगी से बचा जा सकता है। इसी तरह फर्जी वेबसाइटों को उनके “यूआरएल” से पहचाना जा सकता है।