राजेंद्र बंधु

जनसत्ता 17 अक्तूबर, 2014: शब्दों के प्रचलन में अर्थ निहित होते हैं और उसके जरिए कई लोग अपनी मंशा को लागू करते हैं। स्थानीय निकायों के चुनाव में ‘पुरुष सीट’ की शब्दावली भी ऐसी ही है। इसका हवाला देकर महिलाओं को राजनीति से दूर रखने का प्रयास किया जाता है। पिछले पंचायत चुनाव में बघेलखंड क्षेत्र की रामवती सरपंच का चुनाव इसलिए नहीं लड़ पाई कि उसे बताया गया था कि उसकी पंचायत की सरपंच की सीट अब ‘पुरुष सीट’ हो गई है। यानी वह महिला आरक्षित नहीं है, इसलिए उस पर सिर्फ पुरुष चुनाव लड़ सकते हैं।

दरअसल, पंचायती राज की स्थापना के साथ ही देश में महत्त्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत हुई थी, जिसके अंतर्गत महिलाओं और गरीब-वंचित तबकों को गांव की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित की गई। हालांकि पंचायत प्रतिनिधि के पद पर काबिज महिलाओं को अक्षम ठहराने की लगातार कोशिशें हुई हैं और प्रचारित किया गया कि उनकी जगह परिवार के पुरुष सदस्य पंचायत चलाते हैं। लेकिन पिछले बीस सालों में कई महिला सरंपचों ने पंचायत की कमान अपने हाथों में लेकर उन जटिल समस्याओं को हल करने में सफलता पाई, जो पूर्ववर्ती पुरुष सरपंच के लिए संभव नहीं था। कई महिला सरपंचों को गांव के दबंगों से संघर्ष करना पड़ा। इस तरह, इन महिलाओं ने एक सामाजिक बदलाव की शुरुआत की, जिसका असर गांव के विकास पर तो पड़ा ही, महिलाओं की राजनीति में प्रभावी भागीदारी भी दिखने लगी। यह पंचायत में महिलाओं के आरक्षण से संभव हो पाया। गांवों का सामाजिक ढांचा परंपरागत रूप से सामंती रहा है और उसमें विकास के फैसले कुछ वर्चस्वशाली लोगों के हाथों में रहे हैं। इस ढांचे की बुनियाद में पितृसत्तात्मक सोच है, जो सदियों से समाज को नियंत्रित करता आ रहा है।

गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से मध्यप्रदेश में जमीनी स्तर पर कई संस्था-संगठन सक्रिय हुए हैं, जिन्होंने महिला नेतृत्व को बढ़ावा देने के प्रयास किए हैं। मध्यप्रदेश सहित देश के कई राज्यों में ‘द हंगर प्रोजेक्ट’ नामक संस्था महिला पंचायत प्रतिनिधियों में नेतृत्व क्षमता विकास के लिए विशेष कार्यक्रम संचालित करती है। इस संदर्भ में सतना जिले की ग्राम पंचायत मिरौवा की सरपंच मुन्नी साकेत का उदाहरण उल्लेखनीय है। वह सरपंच बनने के बाद हर रोज ग्राम पंचायत कार्यालय में नियमित रूप से उपस्थित रहती है, लोगों की समस्या सुनती है और उन्हें हल करती है। मुन्नी साकेत दलित समुदाय की है और किसी दलित महिला का पंचायत में कुर्सी पर बैठना गांव के दबंगों के लिए असहनीय था। लेकिन मुन्नी ने किसी की परवाह नहीं की। पूर्व सरपंच के कार्यकाल में जहां लोगों को राशन कार्ड बनवाने के लिए पंचायत के कई चक्कर लगाने पड़ते थे, वहीं मुन्नी साकेत ने हाथों-हाथ लोगों के राशन कार्ड बनवाए। कई लोगों की रुकी हुई पेंशन दिलवाई और रोजगार गारंटी के अंतर्गत अधिक से अधिक लोगों को रोजगार दिलवाया। अब पंचायत के लोग चाहते हैं कि वे मुन्नी को फिर से सरंपच के चुनाव में खड़ा करें। लेकिन गांव में यह प्रचारित किया जा रहा है कि अगर पुरुष सीट आई तो वह चुनाव नहीं लड़ सकेगी।

निश्चित रूप से समाज के सभी तबकों और मीडिया को ‘पुरुष सीट’ की शब्दावली से बचने की जरूरत है। पंचायत चुनाव में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अनारक्षित सीटों में से पचास प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। पंचायत निर्वाचन के नियमों के मुताबिक महिलाएं सभी सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। महिलाओं की चुनाव लड़ने के अधिकार तक पहुंच बनाने के लिए ‘पुरुष सीट’ की भ्रामक शब्दावली की जगह सही शब्दावली प्रचलित किए जाने की जरूरत है।

 

 

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