मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ‘खबर’ गायब हो गई लगती है और इसका स्थान फिजूल की ‘बयानबाजी’ ने ले लिया है। नेता, अभिनेता और अन्य कथित ‘सेलिब्रिटी’ आए दिन ऊटपटांग बयान देते हैं और मीडिया आगे बढ़ कर उन्हें उछालने में लगा रहता है।

टीवी चैनलों पर अपना चेहरा दिखाने और सस्ती लोकप्रियता पाने की प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि हर कोई ‘विवादित बयानबाजी’ के जरिए कथित तौर पर लोकप्रिय होना चाहता है। हर कोई अपनी भाषा-संस्कृति की गंदगी उगलने और दूसरों को भी उसकी चपेट में लेने के लिए बेताब है। मीडिया के ‘बाइट-वीर’ तो मानो इसे लपकने के लिए अपनी झोली फैलाए बैठे हैं। खेद की बात यह भी है कि हमारे अखबार भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जाल में फंस रहे हैं। यहां तक कि आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसे अपेक्षया संतुलित समाचार माध्यमों में भी इसका असर दिखने लगा है।

देश में दशकों से तमाम पत्रकारिता संस्थानों की कक्षाओं में सही तथ्य, सभी पक्ष और समाज की बेहतरी वाली संतुलित खबर की पट्टी पढ़ाई जा रही है। मुझे याद है कि नब्बे के दशक में जब प्रिंट मीडिया की तूती बोलती थी तो आमतौर पर सभी बड़े अखबारों में किसी भी समाचार को बिना दूसरे या उस पक्ष की राय जाने बिना प्रकाशित नहीं किया जाता था जो उस समाचार से प्रभावित हो सकता था। यहां तक कि सरकार और सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ होने वाले समाचारों पर भी सरकार का पक्ष जानना जरूरी होता था और वह भी किसी जिम्मेदार अधिकारी का। लेकिन नए दौर की पत्रकारिता को देख कर तो लगता है कि इसके कर्ता-धर्ताओं ने ‘संतुलित’ का मतलब शायद ‘सनसनी’ मान लिया है।

समाचार का सामान्य शिष्टाचार यह कहता है कि किसी के अनर्गल प्रलाप को मीडिया की सुर्खियों से दूर रखा जाना चाहिए। फिर अगर यह प्रलाप किसी व्यक्ति, संस्था, सरकार से संबंधित है तो उस पर दोनों पक्षों से मिली जानकारी को मिला कर समाज के हित में होने वाली सूचना को मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित किया जाना चाहिए। लेकिन टीआरपी और ब्रेकिंग न्यूज की अंधी दौड़ ने समाज का हित तो दूर, देशहित को भी दरकिनार कर दिया है और बस सनसनी फैलाने और पैसा कमाने की भेड़चाल-सी चल पड़ी है। अब नेता भी अभिनेता बन गए हैं और वे खबर के अनुरूप भाव-भंगिमाओं के साथ अपनी बात कहने लगे हैं। नए दौर के मीडिया को तो ऐसी तुकबंदी चाहिए जो किसी की खिल्ली उड़ाती हो, भले ही उसका तथ्यों से लेना-देना न हो। मीडिया अब निष्पक्ष समाचार प्रसारक न रह कर भोंपू बनता जा रहा है। ऐसा शायद ही कभी हुआ है जब मीडिया में दोषी ठहराए गए किसी व्यक्ति को अदालत द्वारा निर्दोष करार देने के बाद मीडिया ने अपनी गलती स्वीकार की हो और इस खबर को भी पहले की तरह स्थान दिया हो।

दरअसल, टीवी समाचार चैनलों पर सुर्खियां दिन भर में कई बार बनती-बिगड़ती हैं, लेकिन समाचार पत्रों में प्रकाशित बातें लंबे समय तक वजूद में रहती हैं और अक्सर घरों या पुस्तकालयों में संग्रहीत तक हो जाती हैं। उसका असर भी गहरा और दीर्घकालीन होता है। इसलिए अब जरूरी हो गया है कि मीडिया स्व-नियंत्रण की नीति का गंभीरता से पालन करे और तत्काल इस दिशा में कड़े कदम उठाए। वरना मीडिया तो अपनी गरिमा खो ही देगा, साथ में देश और इसके लोकतांत्रिक ढांचे को जाने-अनजाने खासा नुकसान पहुंचता रहेगा।

 

संजीव शर्मा

 

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