कुमारेंद्र सिंह सेंगर

मानव विकास की अवस्था का कारण शिक्षा को माना जाता रहा है। विकास के इस क्रम में उसने नए आविष्कार किए, नए तरीकों से ज्ञान अर्जित किया, नए मानक स्थापित किए। आदिकाल में मानव ने अपने ज्ञान को प्रकृति और अपने अनुभवों से हासिल किया। यहीं से उसने विभिन्न प्रकार की शिक्षा ग्रहण की। कालांतर में गुरुकुल, गुरु और आश्रम बने, विद्यालयों का निर्माण किया गया और धीरे-धीरे शिक्षा की वर्तमान पद्धति हमारे सामने आई। पढ़-लिख कर मानव ने अपना, समाज का, विज्ञान, तकनीक और चिकित्सा आदि का विकास किया। इस शैक्षिक विकास ने जहां एक तरफ समाज का भला किया, वहीं एक तरह का परोक्ष नुकसान भी किया।

सबके लिए सहज और सुलभ शिक्षा किसी भी समाज के विकास का अनिवार्य पहलू है। लेकिन सच यह भी है कि पढ़े-लिखे इंसान से कहीं न कहीं समाज में नुकसान बहुत ज्यादा किया है। पढ़-लिख जाने के बाद कुछ लोगों ने समाज के बनाए प्रतिमानों को विखंडित और उनका ध्वंस किया। यकीनन ऐसे प्रतिमानों को खत्म कर दिया जाना चाहिए जो समाज को जड़ बना कर रखते हैं, पीछे ले जाते हैं, विकास की अवधारणा को खंडित करते हैं। लेकिन पढ़े-लिखे बहुत सारे लोगों ने वैसे सामाजिक प्रतिमानों को भी नष्ट किया, जिनके सहारे समाज में एक प्रकार की सामाजिकता बनी हुई थी। एक नकारात्मक पहलू यह भी रहा कि उसने विखंडित प्रतिमानों के स्थान पर ऐसे नए उदाहरण सामने रखे, जिनसे समाज में आपसी मतभेद और विद्वेष में बढ़ोतरी हुई। जबकि न्याय किसी भी समाज के सभ्य होने की शर्त है।

शिक्षित वर्गों के बीच पारिवारिकता के माहौल में ह्रास देखने को मिला। आपसी रिश्तों में मर्यादा टूटती दिखी और आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन नजर आने लगा। इस नकारात्मकता ने न सिर्फ मानवीय संवेदनाओं और परिवारों के बीच सहयोग की भावना का क्षरण किया, बल्कि प्रकृति को भी नुकसान पहुंचाया। शिक्षित इंसान ने तर्क-वितर्क के साथ कुतर्क करना भी सीख लिया। उसने धरती, हवा, पानी, मृदा, वृक्ष, जीव आदि के महत्त्व को खारिज करना शुरू कर दिया।

जबकि हम जानते हैं कि हमारे पुरखों ने इन्हें सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए किस तरह की सामाजिक जीवनशैली का विकास किया था। लेकिन कथित पढ़े-लिखे समाज ने सिरे से इसे नकारते हुए प्रकृति का निर्दयता से दोहन किया, जंगल, नदियां, जीव-जंतुओं आदि को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसी तरह का काम उसने परिवार और समाज को विखंडित करने में किया।
कहने का आशय यह नहीं है कि इंसान जब अशिक्षित या कम पढ़ा-लिखा था तो ज्यादा बेहतर था। यहां इस ओर ध्यान दिलाने की कोशिश है कि शिक्षित होने के बाद इंसान ने सही-गलत को अपने नजरिए और स्वार्थ के आईने में देखना शुरू कर दिया है। जहां जिस स्थिति में उसे लाभ दिखता है, वह कदम उसके लिए सही है। बाकी को वह सिरे से गलत कह देता है।

इसी वजह से उसने अपने सिवाय सभी दूसरे व्यक्तियों को नकारने का काम भी किया। नतीजतन, आज समाज की भारी भीड़ में भी इंसान खुद को अकेला महसूस करता है, परिवार के बीच भी अपने आपको गैर-पारिवारिक समझता है, निराश-हताश महसूस करता है। शिक्षित होने का अर्थ सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिकता और पारिवारिकता का विकास करना था, न कि इनका नाश करना। इंसान विकास के बीच अगर इंसानियत, न्याय आधारित सामाजिकता और पारिवारिकता का भी विकास कर पाए तो उसका शिक्षित होना सही मायनों में सफल सिद्ध होगा।

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