संदीप ‘विहान’

जब मनुष्य ने अपने आधुनिक होने के चलते लगातार इस प्रकृति को बदला है, तो प्रकृति में बदलाव पर मनुष्य को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पिछली कुछ सदियों के दौरान विकास के नाम पर इस प्रकृति ने बहुत कुछ सहा है। जब प्रकृति में हो रहे बदलाव का असर सामने आता है तो मनुष्य सिहर जाता है। यों प्रकृति में हर चीज का प्रस्फुटन खुद ही होता है, किसी को हानि पहुंचाने के मकसद के बगैर। लेकिन मनुष्य इतना संवेदनहीन है कि सबके पल्लवन की दिशा तय करने की कोशिश में लग जाता है। जब चिड़िया ने अपना घोंसला बनाया तो उसने पेड़ का ध्यान रखा। जब कोई पेड़ अंकुरित हुआ तो मिट््टी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। जब मछली ने जीना और तैरना चाहा तो समंदर का ध्यान रखा। एक तरह से देखें तो प्रकृति में सजीव और निर्जीव दोनों ने एक-दूसरे का ध्यान रखा। सहअस्तित्व के इस भाव ने धरती या इस प्रकृति को जिंदा रखा।

लेकिन मनुष्य ने अपने स्वार्थों के लिए प्रकृति का लगातार दोहन किया। पेड़ों को काट कर मकान बनाए। संसाधनों के नाम पर धरती का सीना बार-बार चीरा। मिट्टी की खुशबू को सड़कों, इमारतों, मकानों-दुकानों के नाम पर ढक दिया। प्रकृति ने खुद को बदला तो कहीं खूब बारिश होने लगी तो कहीं सूखा पड़ गया। कहीं इसने किसी ज्वालामुखी से दिल दहलाया तो कहीं भूकम्प से धरती और समूचे मनुष्य जगत को हिला दिया। यह प्रकृति का प्रस्फुटन है, उसकी स्वाभाविकता का हिस्सा है। इसमें मनुष्य की तरह का लोभ निहित नहीं है। वह सृजन कर रही है, आसमान से लेकर धरती तक। इसके सृजनहार स्वरूप में अगर मनुष्य के स्वार्थ बिखरते नजर आ रहे हैं, तो सोचने की आवश्यकता है कि सह-अस्तित्व की संकल्पना को कैसे बढ़ाया जाए।

आदिवासी समुदाय ने सही मायने में प्रकृति के साथ लंबे ऐतिहासिक काल में सह-अस्तित्व की संकल्पना को जीवित रखा है। उन्होंने प्रकृति से उतना ही लिया, जितने की उन्हें आवश्यकता थी। वह भी उसे बिना हानि पहुंचाए। लेकिन राज्य आधारित स्वरूप में हमने प्रकृति को बांट लिया। विकास के नाम पर बांध बना कर कहीं उसके निर्झर जल को रोका तो कहीं पर बसावट के नाम पर कंक्रीट का जाल बिछा दिया। प्रकृति की सांस को लगातार अवरुद्ध कर दिया। पिछले सालों में विश्व में जगह-जगह हमने प्रकृति में आने वाले असामयिक बदलावों को मौसम, जलवायु, भौतिक हलचलों के रूप में देखा। अब विश्व में सभी देशों को विकास के अर्थ प्रकृति के संदर्भ में समझने की जरूरत है।

प्रकृति चाहती क्या है? प्रकृति की चाहत स्मार्ट सिटी, बांध, जमीन पर लगातार उगाए जा रहे उद्योगों आदि में कतई नहीं है। उसकी चाहत बस इतनी है कि उसकी गोद में सब समान रूप से फले-फूलें। सिर्फ मनुष्य नहीं, सभी जानवर, पक्षी, पहाड़, नदियां, पेड़-पौधे आदि। जापान में आई सुनामी हो, भारत में आया चक्रवात हो, बाढ़ या सूखा हो या फिर नेपाल में आया भूकम्प, इन सभी प्राकृतिक आपदाओं में प्रकृति की मनुहार साफ नजर आती है। मनुष्य को समझना होगा कि उसे विकास की फसल उगानी है, लेकिन किस कीमत पर! भविष्य की पीढ़ियों के लिए क्या हम सिर्फ त्रासदियों की थाली में असामयिक मृत्यु परोसने की तैयारी कर रहे हैं? हमें प्रकृति से प्रेम करना है, न कि प्रेमपाश में उसे बांध कर उसका दोहन। हमें अपने बच्चों को आधुनिक मायनों में वैसा बनाना है, जिन्होंने इस प्रकृति को सही अर्थों में सहेज कर रखा है। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि प्रकृति सबकी इच्छाओं को पूरा कर सकती है, किसी एक के लालच को नहीं।

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