अंशुमाली रस्तोगी

महीने दो महीने के अंतराल पर अपने मोबाइल में से ‘वाट्सऐप’ और ‘मैसेंजर ऐप’ को हटा देता हूं। इन्हें हटाते हुए ‘निर्णय’ लेता हूं कि आगे दोबारा इन्हें नहीं डालूंगा! आपसी संवाद का जरिया अब ऐप्स नहीं, आमने-सामने की बातचीत ही रहेगी। लेकिन कुछ समय बाद मुझे खुद ही इनकी ‘जरूरत’ फिर से महसूस होने लगती है। हालांकि दोबारा मोबाइल में इन ऐप्स को डालते हुए तय यही करता हूं कि इनका इस्तेमाल न के बराबर करूंगा। लेकिन ऐसा भी संभव हुआ है कभी!

दरअसल, मोबाइल की दुनिया ने हमें इस कदर अपनी ‘जकड़’ में लिया है कि हम चाह कर भी उससे या किस्म-किस्म के ऐप्स से पीछा नहीं छुड़ा पाते। अगर खुद इससे मुक्त होने की कोशिश की भी जाए तो लोग ‘मजबूर’ कर देते हैं उसके साथ बने रहने के लिए। हालत यह है कि अपवादों को छोड़ कर अब कोई आमने-सामने संवाद या बातचीत नहीं करना नहीं चाहता। न किसी के पास समय है न एक-दूसरे से मिलने की इच्छा। मोबाइल ने संवाद और रिश्तों की दुनिया को किस्म-किस्म की ऐप्स में समेट कर रख दिया है। कभी किसी की खैरियत भी लेनी हो तो वाट्सऐप करके पूछ लो या फिर स्काइप-हैंगआउट पर बात करके। देखते-देखते हम खुद में इस कदर सीमित होकर रह गए हैं कि बाहरी दुनिया से संबंध-रिश्ते हमने न के बराबर कर लिए हैं। खाली वक्त को काटने का जरिया अब किताबें या आपसी मेलजोल नहीं, सिर्फ मोबाइल है।

धीरे-धीरे कर यह बीमारी बच्चों में भी आती जा रही है। यों बच्चों को अपने स्कूल की भारी-भरकम किताबों से ही फुर्सत नहीं मिलती। लेकिन जब मिलती है, तब उनके हाथ में भी मोबइल ही होता है। मोबाइल से खेल कर वे अपना मन बहलाते हैं। अगर मोबाइल से छूटे तो कार्टून नेटवर्क में रम जाते हैं। बच्चों के पारंपरिक खेल अब इतिहास बन कर रह गए हैं। मैंने अक्सर ऐसे मां-बाप को अपने बच्चों की तारीफ करते सुना है कि हमारा ढाई-तीन साल का बच्चा भी मोबाइल की सारी ऐप्स हमसे ज्यादा अच्छे से चला लेता है। दरअसल, बच्चों को भी मोबाइल की दुनिया में धकेलने में हम मां-बाप का भी बड़ा योगदान है। लेकिन इसे हम स्वीकार नहीं करेंगे।

धीरे-धीरे कर अब रिश्ते भी मोबाइल सरीखे होते जा रहे हैं। चूंकि रिश्तों में संवाद बचा नहीं, इसलिए दूरियां और व्यस्तताएं इस कदर बढ़ गई हैं कि अक्सर हमें खुद से ही संवाद किए हफ्तों-महीनों बीत जाते हैं। हमारे बीच सुख-दुख को आपस में मिल-बैठ कर बांटने का जो जज्बा कभी हुआ करता था, अब वह निरंतर छीजता जा रहा है। हम सबने अपनी-अपनी अलग दुनिया बना ली है, बस उसी में अपने मोबाइल के साथ खुश रहते हैं। और जब दुखी होते हैं तो फेसबुक या ट्विटर पर चंद लाइनें लिख कर, कुछ ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ पाकर संतोष कर लेते हैं। दिलचस्प है कि अब हमें अपनों की चिंता किए जाने से कहीं बढ़ कर आभासी संसार द्वारा चिंता किया जाना लगता है। मरने-जीने की खबर रिश्तेदारों को बाद में दी जाती है, पहले फेसबुक पर सूचना डाली जाती है।

मोबाइल-संस्कृति ने हमें इस कदर ‘आत्मकेंद्रित’ कर दिया है कि रात को सोते समय भी हमें घंटी बजने या मैसेज का आभास होता है। जिस तेजी से मोबाइल की दुनिया बदल रही है, उतनी ही तेजी से हम उसके भीतर समाहित होते जा रहे हैं। अगर मोबाइल पास है तो सब कुछ पास है। दोष दूसरों को ही क्यों दंू, मोबाइल के आकर्षण से मैं खुद को भी कहां बचा पाया हूं! समय-असमय मोबाइल से दूर रहने की प्रतिज्ञा खुद ही टूट जाती है। शायद यही वजह है कि मोबाइल के सागर में संवाद कहीं गुम-सा हो गया है।

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