अनिल हासाणी
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस संसार में पाई जाने वाली सभी प्रजातियों में मनुष्य को सबसे बुद्धिमान प्राणी माना जाता है। पर क्या सचमुच ऐसा है? मेरे मन में यह प्रश्न इसलिए उठ रहा है कि हमने आज तक किसी जानवर, पंछी या दूसरे जीव को अपनी जरूरत पूरी करने के लिए किसी पत्थर पर माथा टेकते नहीं देखा। और इतना भी तय है कि कोई जानवर किसी दूसरे को इस आधार पर अपने से अलग नहीं समझता कि वह किसी विशिष्ट सत्ता में आस्था रखता है। हमने यह भी कभी नहीं देखा कि कोई बंदर किसी दूसरे बंदर को या कोई कुत्ता किसी दूसरे कुत्ते को अपनी आस्था के खिलाफ बता कर मारता हो। यह काम तो मनुष्य जैसा बुद्धिमान या तार्किक सोच रखने वाला प्राणी ही कर सकता है। वास्तव में मनुष्य के अलावा कोई अन्य प्राणी आस्था जैसी किसी काल्पनिक चीज में कभी उलझता ही नहीं है और न ही उसे उलझने की जरूरत महसूस होती है।
दरअसल, मानव जाति के इतिहास में आज तक युद्ध, भूकम्प, बाढ़, सुनामी आदि से उतने लोग नहीं मरे, जितने धर्म और ईश्वर के नाम पर मरे या मारे गए हैं। फिर भी हम इस तरह के जुमले अक्सर सुनते हैं- ‘धर्म इंसान को अच्छा बनाता है…’, ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता…’ या फिर ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ आदि। जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य समाज में धर्म ही सबसे जयादा नफरत और लोगों के बीच दूरी बढ़ाता है। जहां तक नैतिक मूल्यों का प्रश्न है, एक नास्तिक होने के नाते मैं यह कह सकता हूं कि धर्म का नैतिकता से कोई संबंध नहीं है। अलबत्ता अपने आसपास धार्मिक आस्था रखने वाले बहुत सारे लोगों को अनैतिकता के मार्ग पर चलते हुए हम सबने देखा होगा।
शायद उन्हें यह पता होता है कि बुरे से बुरा काम भी करने के बावजूद अगर भगवान के सामने एक बार मत्था टेक कर प्रायश्चित कर लिया जाए, तो सारे पाप धुल जाते हैं! हालांकि मेरे विचार में स्वर्ग-नरक की पारलौकिक धारणा और भगवान एक कल्पना और भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। फिर भी, अगर कोई व्यक्ति मात्र स्वर्ग प्राप्ति के लालच में या भगवान के डर के कारण अच्छा बन कर रहे तो क्या वह अच्छाई भी खोखली नहीं हुई?
कई बार ऐसा लगता है कि देश में फैले इस भ्रष्टाचार के पीछे कहीं हमारी दान-दक्षिणा और चढ़ावे की संस्कृति ही तो जिम्मेदार नहीं? जहां बहुत कम उम्र से ही किसी बच्चे को और फिर बड़ा होने के बाद भी लगातार लोगों को यह सिखाया या बताया जाता रहता हो कि गंगा में एक डुबकी मारने से सारे पाप धुल जाते हैं, वहां भला कोई पाप करने में क्यों संकोच करेगा। अपने चारों तरफ हम नजर दौड़ाएं, धर्म की व्यवस्था के तहत जितनी भी मान्यताएं हैं, उनके आलोक में सामाजिक आचरण की नैतिकता की हकीकत हमें समझ आ जाएगी। अब समय आ गया है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के दिमाग में जन्म से ही धर्म का जहर नहीं भरें।
बच्चों को अपना स्वतंत्र और वैज्ञानिक सोच विकसित करने के लिए प्रेरित करें और उन्हें खुद यह तय करने दें कि वह धर्म या ईश्वर में विश्वास रखता है या नहीं। पैदा होने के बाद से ही धर्म को लेकर पूर्व धारणाओं, आग्रहों या मान्यताओं पर आधारित सोचने-समझने और मानसिकता के एक खास ढांचे में हम पलते-बढ़ते हैं या हमें उसी तरह प्रशिक्षित किया जाता है। इसे निजी आस्था, स्वतंत्र या वैज्ञानिक दृष्टिकोण का नाम नहीं दिया जा सकता। मानव सभ्यता के विकास की बुनियाद वैज्ञानिक सोच है और यही हमें आगे लेकर जा सकता है।
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