आशुतोष तिवारी

राष्ट्रवादी कुंठाएं खुद को प्रासंगिक रखने की हवस में अक्सर अपना निशाना अभिव्यक्ति के जन-माध्यमों को बनाती आई हैं। इसलिए कुछ समय पहले बेहद जरूरी बताई जाने वाली अभिव्यक्ति की आजादी के साथ कोई नया सलूक नहीं हुआ। वही हुआ जो कभी संस्कृति, कभी राष्ट्र-विरोधी तो कभी भावनाओं के आहत होने के नाम पर होता आया है। सोलह दिसंबर, 2012 को हुई बलात्कार और हत्या की बर्बर घटना पर बनाए गए लेस्ली उडविन के वृत्तचित्र ‘इंडियाज डॉटर’ को प्रतिबंधित करने के लिए तर्क दिया गया कि इस वृत्तचित्र का मकसद भारत की छवि खराब करना है।

जबकि जिन लोगों ने यह वृत्तचित्र देखा, वे जानते हैं कि इसमें कुछ भी ऐसा खास नहीं है जो दुनिया के क्षितिज पर भारत की छवि को नुकसान पहुंचा देगा। दरअसल, इसमें कुछ नया नहीं है। बल्कि यह बलात्कार को लेकर एक आम धारणा है, जिसे बदलना हमारे समाज के लिए चुनौती है। अगर भारत के कुछ चर्चित नेताओं द्वारा बताए गए बलात्कार के कारणों का अध्ययन किया जाए तो उनके बयान भी इस घटना के एक दोषी मुकेश सिंह से ज्यादा अलग नहीं हैं।

हर देश में यौन हिंसा को समाप्त करने, जागरूकता फैलाने के लिए वृत्तचित्र बन रहे हैं। लेकिन कोई देश इसे इसलिए प्रतिबंधित नहीं कर देता कि इससे उसकी छवि खराब होगी। अगर बलात्कार के मामले पर किन्हीं बयानों से देश की छवि खराब होती है तो क्या मीडिया को बलात्कार की खबरें दिखानी बंद कर देनी चाहिए? यह तर्क तो उस निम्न आंचलिक मानसिकता से प्रेरित लगता है जिसके चलते बलात्कार पीड़िता को ‘घर की बात घर में दबा देने’ की सलाह देकर चुप करा दिया जाता है।

यौन हिंसा और इस मसले पर हमारे सोच से जुड़े कई रिपोर्ट और सर्वेक्षण समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक कॉलेज के चौवालीस फीसद छात्र स्त्री के विरुद्ध हिंसा को सहज मानते हैं। इक्यावन फीसद अच्छी शिक्षा प्राप्त छात्र इस पारंपरिक सोच में विश्वास रखते हैं कि महिलाओं को परिवार और बच्चों की देखभाल करनी चाहिए। कॉलेजों में पढ़ने वाली छत्तीस फीसद लड़कियां और चौवालीस फीसद लड़के दहेज लेने-देने की व्यवस्था को जायज मानते हैं। क्या ऐसे सर्वेक्षणों पर सिर्फ इसलिए रोक लगा देनी चाहिए कि ये आंकड़े भारत की छवि खराब करते हैं?

दरअसल, हम चाह कर भी सच्चाई पर परदा नहीं डाल सकते। हम जानते हैं कि हमारे समाज में पितृसत्ता की जड़ें काफी गहरी हैं। इसीलिए यहां बेटियां जन्म लेने से पहले कोख में ही मार डाली जाती हैं। एक हजार पुरुषों पर नौ सौ अठारह महिलाओं का आंकड़ा भी हमारे सोच को बताने के लिए पर्याप्त है। हम जिस समय में जी रहे हैं, उसमें बदलाव की गुंजाइशें हैं, पर उन्हें जीवंत करने के लिए प्रतिबंध लगाने के बजाय सच से रूबरू हो परिवर्तन का प्रयास करना होगा। अच्छी बात यही है कि असमानता और शोषण को समाप्त करने के लिए आवाज सिर्फ शहरी भारत से ही नहीं, ग्रामीण भारत से भी उठ रही है। भारत पूरी दुनिया में अपनी लोकतांत्रिक छवि के लिए जाना जाता है। अभिव्यक्ति के माध्यमों पर प्रतिबंध लगाने पर उलटे भारत की बदनामी हो रही है। सरकार को समझना चाहिए कि गंदगी की सफाई करने के बजाय उस पर परदा डालना सच को धोखा देना है। अंधेरे को अंधेरे से नहीं मिटाया जा सकता। उसे समाप्त करने के लिए रोशनी की जरूरत होती है।

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