सुरेश उपाध्याय

कहा जाता है कि ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।’ समाज की इस सबसे अहम जरूरत के प्रति शासकों की उपेक्षापूर्ण दृष्टि और नीति ने वंचित वर्ग को हमेशा भाग्य भरोसे ही रख छोड़ा है। आर्थिक भूमंडलीकरण की नीतियां लागू होने के बाद लोक कल्याण की अवधारणा जैसे-जैसे सिमटती जा रही है, स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण बढ़ता जा रहा है। व्यवसायीकरण और मुनाफे की प्रवृत्ति ने इस क्षेत्र में मानवीय संवेदना और सहानुभूति के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है।

आज आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधा प्राप्त करना दुष्कर हो गया है। चिकित्सा-शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवा के क्षेत्र में एक ओर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने और दूसरी ओर सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र को हतोत्साहित करने की प्रवृत्तियों ने संकट को और विकराल बना दिया है। ग्रामीण क्षेत्र की पूरी तरह अनदेखी से देश की बड़ी आबादी के लिए तो संकट है ही, डॉक्टरों या निजी अस्पतालों में बेलगाम फीस, अपर्याप्त देखरेख, गैरजरूरी परीक्षण, कॉरपोरेट घरानों और बीमा कंपनियों की मिलीभगत, चिकित्सक और जांच घर के साथ-साथ दवा कंपनियों के गठजोड़, अवैध दवा परीक्षण और मरीज या उसके परिजनों की अज्ञानता ने शोषण का ऐसा चक्र बना दिया है, जिसे तोड़ने के लिए प्रभावी पहल की जरूरत है।

आजादी के इतने वर्षों के बाद भी अधिकतर राज्यों की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं होना शासक वर्ग की इस क्षेत्र के प्रति लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का सबूत है। जन-स्वास्थ्य के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए राज्य सरकारों को इस क्षेत्र में अविलंब कारगार उपाय करने चाहिए और सबसे पहले हरेक राज्य को अपनी परिस्थितियों और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य नीति की घोषणा करनी चाहिए।

इन नीतियों के मूल में स्वास्थ्य सेवाओं को सरकार की जिम्मेदारी बनाने के अलावा व्यावसायिक लूट, पेशेवर मुनाफाखोरी पर प्रभावी नियमन और नियंत्रण होना चाहिए। प्राथमिक स्वास्थ्य जरूरतों पर ध्यान नहीं दिए जाने से छोटी-छोटी स्वास्थ्य समस्याओं के लिए ‘विशेषज्ञों’ पर निर्भरता बढ़ रही है, जिनकी पहले से ही कमी है। काम का दबाव कम करने के लिए विशेषज्ञ चिकित्सकों ने फीस वृद्धि और सरकार की ओर से नियुक्ति वाली जगह पर ड्यूटी नहीं करने का रास्ता अपनाया हुआ है। इससे गरीब और वंचित वर्ग की मुसीबतें और बढ़ गई हैं और वे नीम-हकीमों पर ही निर्भर रहने को मजबूर हैं। इसके निदान के लिए ग्रामीण और झुग्गी या गरीब बस्ती वाले क्षेत्रों में खासतौर पर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केंद्र के विस्तार और उनके ठीक से काम को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।

स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1.04 फीसद खर्च किया जाता है। यानी स्वास्थ्य के लिए नगण्य व्यय सरकार की अपनी जिम्मेदारी के प्रति औपचारिकता निर्वाह का प्रतीक भर है। इसमें वृद्धि के बजाय पिछले बजट में इस मद में भारी कमी कर दी गई। देश में जीवनरक्षक दवाइयों का मूल्य निर्धारण ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर के माध्यम से एनपीपीए यानी नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग ऑथोरिटी करती है। एनपीपीए ने कैंसर, मधुमेह, हृदय और अन्य आवश्यक दवाइयों का मूल्य निर्धारण भी कर दिया था।

इन दवाइयों पर कंपनियां अत्यधिक लाभ अर्जित कर जनता को लूट रही थीं। एनपीपीए के इस कदम के विरुद्ध सभी कंपनियां न्यायालय में जाने की तैयारी में थीं, तभी भारत सरकार ने ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर, 2013 के अनुच्छेद उन्नीस को हटा दिया, जिससे एनपीपीए को हासिल अधिकार अपने आप समाप्त हो गए। मजबूरी में एनपीपीए को अधिसूचना जारी कर उन एक सौ आठ अतिआवश्यक दवाइयों को मूल्य निर्धारण से छूट देने की घोषणा करनी पड़ी और इन दवाओं को महंगे दामों पर बेचने का रास्ता खोल दिया गया। इस पृष्ठभूमि में स्वास्थ्य नीति, 2015 के मसविदे को समझें तो यह इस क्षेत्र में लूट को रोकने और निजी या कॉरपोरेट व्यवसायतंत्र के शिकंजे से आमजन को मुक्त करने की कोई आस्था नहीं जगाती है।

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