कौशलेंद्र प्रपन्न
तुलसी राम का आत्म-वृत्त ‘मुर्दहिया’ पढ़ते हुए देवताओं और देवालयों का विभाजित समाज आंखों के आगे नाचने लगता है। ‘उनके देवता’ और ‘हमारे देवता’ के वर्गीकरण को ध्यान से देखें तो समाज के शक्तिशाली और सत्ताधीशों के देवता और देवालयों के चरित्र स्पष्ट होते हैं। दिवंगत तुलसी राम ‘चमरिया माई’ और ‘डीह बाबा’ का जिक्र करते हैं जो निम्न और दलित जाति के लोगों के देवता हैं। उनके देवता और देवालय गांव से बाहर मुर्दहिया के पास वीराने में हैं। उन पर चढ़ने वाले प्रसाद और भक्तजन भी अगड़े लोगों से कई मायने में अलग हैं। जहां चमरिया माई और डीह बाबा पर शराब, डांगरों के मांस आदि चढ़ाएं जाते हैं, वहीं अगड़ों के यहां इन चीजों को अछूत माना गया है।
यह एक उदाहरण भर है, जिसमें देवता और देवालयों के चरित्र और सामाजिक बुनावट की बानगी मिलती है। अगर देश में दलितों के देवताओं और देवालयों की ओर नजर डालें तो वर्ग चरित्र और अगड़ों के देवताओं के खान-पान, वेश-भूषा आदि में काफी अंतर देखने को मिलेगा।
2008 के अगस्त माह में एक व्यावसायिक अखबार ने खबर प्रकाशित की थी कि देश के सबसे अमीर और धनाढ्य मंदिर कौन से हैं, उनमें रोज दिन कितने चढ़ावे आते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक एक दिन में अस्सी लाख से लेकर एक करोड़ तक के जेवर, सोना, चांदी और नकद आदि के साथ शिरडी का साई मंदिर पहले स्थान पर था और दूसरे नंबर पर मुंबई का सिद्धि विनायक मंदिर था। देश के इन दो मंदिरों में जितने चढ़ावे आते हैं और कमाई होती है, उस अनुपात में उनके देवताओं और देवालयों की गिनती कहीं भी नहीं होती।
समय-समय पर मंदिरों में चढ़ाने वाले चढ़ावे और उनकी कमाई को लेकर खबरें आती रही हैं लेकिन उनके देवताओं की खोज खबर तक नहीं ली जाती। यह जानना बड़ा दिलचस्प हो सकता है कि देश भर में ‘उनके’ देवताओं पर कितने चढ़ावे चढ़ते हैं और वे कितने महंगे वस्त्राभूषण पहनते हैं। हिंदू देवी-देवताओं के घर हर गली-मुहल्ले में हैं।
भारतीय मिथ शास्त्र पर नजर डालें तो पाएंगे कि अगड़ों और उनके देवताओं के भक्त भी अलग-अलग होते थे। मंदिर में देवी-देवताओं के पत्थर, वस्त्र, पहनावे सभी एक खास वर्ग की छवि पैदा करते हैं। सच यही है कि जो लोग मंदिरों के व्यापारी हैं, उनके लिए धर्म और आस्था नाम की कोई चीज नहीं होती। उनकी नजरों में अगर कुछ होता है तो वह है मुनाफा। जिस तरह से दुकानों, मालों और मंडियों में बोली लगती है, उसी तरह मंदिरों की भी बोली लगा करती हैं। हरिद्वार में हरकी पौड़ी पर तमाम मंदिरों की एक साल की बोली लगती है। वहां मंदिर मालिकों से बात हुई तो बताया गया कि एक साल की कीमत पांच करोड़ है। हमें यह पैसे भक्तों से ही तो निकालने होते हैं। यही वजह है कि हर मंदिर के ‘प्राचीन’, ‘अत्यंत प्राचीन’ गंगा मां का मंदिर होने के दावे किए जाते हैं।
दूसरी ओर, ‘डीह बाबा’, ‘चमरिया माई’ और उनके भक्तों में वह शक्ति शायद नहीं है कि आम रास्ते, चौराहों आदि पर रातोंरात मंदिर खड़ा कर लें। उसके लिए काफी समीकरण बैठाने पड़ते हैं। हर शहर और गांव में किस तरह और किनके द्वारा मंदिर रातोंरात बन जाते हैं, यह जानना भी रोचक हो सकता है। किनके देवता टूटी-ढहती दीवारों और छत के नीचे रहते हैं और किनके देवता चमचमाती रोशनी में नहाती दीवारों और छत के नीचे विश्राम करते हैं! एक ओर, दूध के जलढार करते भक्त होते हैं तो दूसरी ओर कहीं देसी शराब चढ़ाई जाती है। कुछ देवालयों में गोरू-डांगर, ताश पत्ती खेलने वालों के अड्डे होते हैं, वही कुछ देवालयों में छप्पन भोग लगता है।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta