विरमा राम
गांव से खबर आई है कि इस बार खेती बड़ी भारी पड़ी है। पहले बरसात ने तबाही मचाई, इसके बाद जैसे-तैसे फसल काटी गई। फसल काटने के लिए लोग नहीं मिल रहे थे। मैं यहां मनरेगा को दोष नहीं देना चाहूंगा। हालांकि देश में जब से यह रोजगार गारंटी कानून लागू हुआ है, समाज के एक मलाईदार तबके के बीच इस बात का रोना है कि मनरेगा की वजह से मजदूर नहीं मिल रहे हैं या उनके भाव बढ़ गए हैं यानी उनकी दिहाड़ी की कीमत बढ़ गई है।
एक बड़ी समस्या यह है कि अब खेती कोई करना नहीं चाहता। पिछले दिनों मुझे काफी समय तक गांव में रहना पड़ा। गांव में राजनीति से इतर सबसे बड़ी चर्चा का विषय था घटती और घाटे का सौदा बनती खेती। हमसे ठीक पहले वाली पीढ़ी की सबसे बड़ी चिंता थी कि उनकी अगली पीढ़ी खेती करना नहीं चाहती और जो लोग कर भी रहे हैं, वे ऐसा मजबूरीवश ही कर रहे हैं। हाल में जारी सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि खेती का रकबा घटा है।
खैर, हम जब बच्चे थे, तब गांव में खेती का जबर्दस्त माहौल था। गांव की ज्यादातर आबादी खेती में लगी हुई थी। आज की तुलना में सुविधाओं का घोर अभाव था। बिजली के बजाय डीजल से ट्यूबवेल चलते थे या कुएं का सहारा लेना पड़ता था। परिवहन के साधन नहीं थे, थ्रेसर जैसे यांत्रिक कृषि उपकरण बहुत कम थे। खेती का दारोमदार मानवीय श्रम पर टिका था और बड़ा मेहनत वाला काम था। जेठ की तपती दुपहरी हो या माघ की सर्द रातें, गांव वाले खेतों में लगे ही रहते थे। किसान के लिए खेती से प्रिय कोई नहीं होता।
आज के जमाने में सुविधाएं बढ़ गई हैं। खेती तुलनात्मक रूप से आसान हो गई है। लेकिन गांव में आज की पीढ़ी खेती करना नहीं चाहती। अधिकतर किशोर-युवा ‘देसावर’ (दूसरे राज्यों के बड़े शहर) का रुख कर लेते हैं। कुछ लोग नौकरी के लिए प्रयास करते हैं। बाकी बचे लोग गांव में ही या उसके आसपास काम-धंधा कर लेते हैं।युवा पीढ़ी का यह मोहभंग स्वाभाविक है। फसलों के भाव नहीं बढ़े, लेकिन खेती की लागत कई गुना बढ़ गई है।
वहीं उत्पादन में भी कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। लागत का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। उर्वरक (यूरिया-डीएपी), बीज, दवाई, परिवहन की लागत कई गुना बढ़ गई है। हर साल ठीक खेती के मौसम में यूरिया की भयंकर कमी पैदा कर दी जाती है। पानी कभी चालीस फुट की गहराई पर होता था, आज पांच या छह सौ फुट नीचे मिलता है। ऊपर से कई इलाकों में सरकार ने ‘डार्क जोन’ घोषित कर रखा है, यानी कानूनन आप नया ट्यूबवेल नहीं बनवा सकते। ऋण के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं। कोई किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए मिलने वाला ऋण भी बिना रिश्वत के हासिल कर ले, यह शायद ही मुमकिन है। वहीं मेरे एक बैंक अधिकारी मित्र का मानना है कि किसानों के तो मजे हैं, उन्हें इतनी कम दर पर ऋण मिल जाता है। इन तमाम कठिनाइयों के बीच कोई बहुत मजबूर किसान ही खेती करना चाहता है।
मेरे पिताजी बचपन में हमें खेतों में काम करने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहा करते थे कि खेती राजा धंधा है। यानी हम ही मालिक हैं। मेरी दादी की तो सबसे बड़ी चिंता हम लोगों का खेती में हाथ तंग होना थी। लेकिन अफसोस कि हम चाह कर भी न तो अपने पूर्वजों की परंपरा को आगे बढ़ा पा रहे हैं और न खेती से जुड़ी उनकी भावनाओं का सम्मान कर पा रहे हैं। कैसे करें…!
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