सागर
किताब का एक पन्ना पढ़ा। पहली बार सरसरी तौर पर, दूसरी बार ध्यान देकर, तीसरी बार समझ कर, चौथी बार और समझने के लिए। फिर कुछ समझा। पांचवीं बार पढ़ कर पूरा मंतव्य समझ गया। कुछ छूट रहा था फिर भी। अर्थ तो समझ गया, लेकिन उस पंक्ति को लिखा कैसे गया था, वह भूल रहा था। छठी बार फिर पढ़ा। एक पंक्ति में एक विसर्ग चिह्न, दो कॉमा, एक द्वंद्व समास के बीच इस्तेमाल होने वाला ‘डैश’ और एक पूर्ण विराम से लैस वह वाक्य, जिस पर ध्यान नहीं दे पाते हैं।
पढ़ना एक आवेग होता है। घटनाक्रम को तेजी से जी लेने वाला मैं इमारत को तो देख लेता हूं, लेकिन उनमें लगने वाले गारे और र्इंट को नजरअंदाज कर देता हूं। जबकि यह हमारे कहन में बहुत सहायक होते हुए मनोस्थिति का निर्माण करती है। कई बार यह विधा का मिजाज तैयार करती है।
सुबह से मन थोड़ा उद्विग्न है। जाने क्यों हम किसी से कुछ कहना क्यों चाहते हैं! सब कुछ होने के बाद भी क्यों हमें सिर्फ ‘बेसिक्स’ की याद सताने लगती है। इतनी छोटी चीज कैसे एक समय इतना बड़ा बन जाती है कि कई दिनों से रोया नहीं। सोता रोज हूं, लेकिन सोया नहीं। पेट साफ रहने के बावजूद क्यों भारी-भारी लगता है! मन पर, सोच पर कई मन का भार रखा हुआ लगता है।
ऐसी कोई तोप बातें नहीं कहनी। लेकिन है कुछ जो कहनी है। पास बैठो न मेरे! हो सकता है मैं कुछ कहूं भी नहीं तुमसे और हम बात भी कर लें आपस में! बस बैठो। या फिर मैं सीधे-सीधे क्या कह भी न पाऊं। क्या कहना है, नहीं जानता। या फिर हो सकता है हम कुछ और चीजों पर बात करते-करते वह कह जाएं, जिसकी वजह से यह भारीपन तारी है। खुली हवा में भी घुटन होती है। हम बेकार, वाहियात-सी बातें करना चाहते हैं, बस।
हम गिलहरी को अपनी सारी बुद्धिमानी भूल कर भूजा खाते देखना चाहते हैं। हम उस पर बात करना चाहते हैं। हम कोहरे में डूबी रेल लाइनों और सिग्नलों पर बात करना चाहते हैं। हम तुम्हारे साथ टूटा-टूटा-सा भटका हुआ कोई ‘राइम’ गुनगुनाना चाहते हैं। हो सकता है कि हम देर तक तुम्हारे साथ सहज न हो पाएं। हो सकता है देर तक हम बस मूक बैठे रहें इस उधेड़बुन में कि शुरू कहां से करें। अरसा हो गया, इसलिए हम बहने की तरतीब ढूंढ़ना चाहते हैं। हम ‘राइम’ से फिसल-फिसल जाएंगे और वहां, उस भूली-सी खाली जगह को भरने के लिए महीन आवाज में केवल हूं-हूं आ हा करेंगे। हमें गीत के बलाघात वाली पंक्तियों पर पहुंचने की जल्दी नहीं रहेगी। हम बीच के अंतरे, मुखड़े पर ही जी भर खेलेंगे।
हम मगन होकर किसी मैले आस्तीन वाले आवारा लड़के से लट्टू लेकर अपनी जीभ को उलटा अपने ऊपरी होंठ पर चढ़ा कर लट्टू की धारियों पर कस कर डोरी चढ़ाएंगे। इस तन्मयता में ऊपरी होंठ पर चढ़ी हमारी जीभ कभी नुकीली होगी कभी गोलाकार। जब देर तक नुकीली रहे, तब तुम समझो कि हमने डोरी सही कसी है। हम किसी ‘हाल्ट’ पर केतली में चाय को देर तक उबलता देखेंगे। कोयले के अंगार पर कालिख लगी अपने मौलिक रंग को बचाने की जद्दोजहद करती, सारस वाली गर्दन लिए, काले और अल्यूमीनियम की सफेद चिकनाहट लिए दो रंगों के समायोजन में एक लंबे वक्त की कहानी कहती केतली अपने ढक्कन को हटाने की कोशिश कर रही है। केतली का क्लोज-अप, लंबे शॉट में बदलता जाए और रेल के इंजन में तब्दील हो जाए। रेल की मद्धम सीटी उभरे, हमारी आंखें मुंद जाएं और… और…!
सरकारी स्कूल की घंटी की आवाज, पाठशाला का शोर, और याद आता जाए कि… आधुनिक भाप इंजन का आविष्कार… जेम्स वाट ने किया था…!
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