कवि वेणुगोपाल की एक कविता का अंश है- ‘कि हिंदी कवि / डूबता-उतराता तो अपनी कविता में है / लेकिन / लाश अक्सर उसकी दिल्ली में मिलती है।’ वेणुगोपाल ने इस कविता के माध्यम से सत्ता और साहित्यकार के आपसी संबंध और परिणाम को रेखांकित करने की कोशिश की है। लेकिन हाल ही में लोकप्रिय तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन ने फेसबुक वॉल पर अपनी मौत की घोषणा कर निस्संदेह हम सबको हैरान-परेशान कर दिया। हिंदुत्ववादी और जातिवादी संगठनों के कारण वे बेहद परेशान और निराश थे, इसलिए विरोधियों से आजिज आकर लेखक के रूप में अपने मरने की घोषणा उन्होंने खुद अपने फेसबुक वॉल पर की- ‘लेखक पेरूमल मुरुगन मर चुका है। वह ईश्वर नहीं है, इसलिए वह फिर अवतरित नहीं होने वाला। इसके बाद एक अध्यापक पी मुरुगन जीवित रहेगा।’ इस ‘आत्महत्या नोट’ में मुरुगन ने लिखा कि ‘जिन्होंने मेरा साथ दिया और एक लेखक की अभिव्यक्ति की आजादी के लिए साथ खड़े रहे, उन सबका बहुत-बहुत धन्यवाद’। अपनी मृत्यु की घोषणा के साथ लेखक ने अपने सभी उपन्यास, कथा-कहानी, कविताएं वापस लेने की बात कही। अपने प्रकाशकों से कहा कि वे उनकी किताबों को न बेचें। मुरुगन ने अपने प्रकाशकों को धीरज और सांत्वना देते हुए लिखा कि अगर प्रकाशकों को नुकसान होगा तो वे उनकी भरपाई करेंगे। साथ ही अपने पाठकों के लिए भी उन्होंने लिखा कि वे उनकी पुस्तकों को जला दें। अपने ‘आत्महत्या नोट’ की अंतिम पंक्ति में जातीय, धार्मिक और राजनीतिक समूहों से अपील करते हुए पेरूमल ने लिखा- ‘वे अपना विरोध समाप्त कर लेखक को अकेले छोड़ दें, क्योंकि उसने अपनी सभी किताबों को वापस ले लिया है।’

गौरतलब है कि पेरूमल मुरुगन अपने उपन्यास ‘माथोरुभगन’ को लेकर काफी विरोध का सामना कर रहे थे। उनके विरोधियों में प्रमुख रूप से कोंगू वेल्लाल गुंडर समुदाय के लोग हैं जो उपन्यास की विषय-वस्तु, भाषा को लेकर उग्र थे। इस समुदाय का आरोप था कि ‘माथोरुभगन’ में उनकी जाति की महिलाओं और हिंदू देवी-देवताओं का अपमान किया गया है। इसलिए कोंगू वेल्लाल गुंडर समुदाय के लोग लेखक से नाराज चल रहे थे। इस नाराजगी ने तब और भी उग्र रूप धारण कर लिया जब हिंदुत्ववादी संगठनों के नेताओं ने हिंदू देवी-देवताओं के अपमान का तत्त्व भी इस विरोध आंदोलन में मिश्रित कर दिया।

सवाल यह नहीं है कि लेखक ने किसी समुदाय, व्यक्ति या धर्म की आस्था पर चोट पहुंचाई, बल्कि यह है कि हम किस दौर में रह रहे हैं कि जरा-सी तर्क की गरमी लगी नहीं कि आस्था नामक चीज पिघलने लगती है। वाल्टेयर कह गए हैं कि ‘मैं तुम्हारे विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन तुम्हारे विचारों की रक्षा के लिए अपने प्राण दे सकता हूं।’ तो क्या हम उलटी दिशा में विकास कर रहे हैं, जहां आखिरकार हम सभी आदि-दशा में पहुंच जाएंगे, जहां पर आधुनिक यंत्र-संयंत्र और आधुनिक सुविधाएं भी रहेंगी और मध्यकालीन प्रतिगामी विचारों के वाहक भी होंगे? कुछ समय पहले फ्रांस में शार्ली एब्दो पर हमला हुआ था, जिसमें करीब दर्जन भर पत्रकारों और कार्टूनिस्टों की हत्या कर दी गई, महज आस्था को लेकर। शार्ली एब्दो की घटना ज्वलंत उदाहरण है कि हमने विरोध को लोकतांत्रिक तरीके से लड़ना सीखा ही नहीं। अगर सीखा होता तो हमें एके-47 और एके-56 की जरूरत नहीं पड़ती और किसी लेखक को अपनी ‘मृत्यु’ की घोषणा नहीं करनी पड़ती। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में- ‘तुम्हारी मृत्यु में / प्रतिबिंबित है हम सबकी मृत्यु / कवि कहीं अकेला मरता है!’

 

रमेश कुमार

 

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