क्षमा सिंह
जनसत्ता 16 अक्तूबर, 2014: अब तक श्वेत-श्याम से लेकर रंगीन फिल्मों तक हर दशक में सिनेमा में परिवर्तन और विकास देखा जा सकता है। सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने के बाद यह चर्चा स्वाभाविक है कि सिनेमा साहित्य से जुड़ कर क्या कुछ अर्जित कर सका है। जिस तरह साहित्य की विधा के रूप में उपन्यास ने अपने आरंभिक चरण में समाज के नैतिक-सामाजिक पक्ष से जुड़ कर खुद को समृद्ध किया, उसी तरह सिनेमा ने भी अपनी सामाजिक पक्षधरता स्पष्ट की। साहित्य ने समय-समय पर सिनेमा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भागीदारी निभाई है। सिनेमा की शुरुआत से ही महत्त्वपूर्ण कृतियों से दर्शकों को जुड़ने का मौका मिलता रहा है। फिल्में संप्रेषण का सशक्त माध्यम हैं। इसलिए वे समाज के बड़े वर्ग को प्रभावित करती हैं। साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों ने एक नए रचनात्मक लोक की सृष्टि की है। सिनेमा और साहित्य दोनों सृजन से जुड़े क्षेत्र हैं। दोनों की विस्तृत परंपरा है। साहित्य और सिनेमा दोनों समाज को दिशा देने वाले और उसके मूल्यांकन को कलात्मक रूप में प्रस्तुत करने का जरिया हैं। चीजों को देख कर सीखना आसान होता है और इसका प्रभाव भी व्यापक होता है। फिल्मों की महत्ता इस मायने में अधिक है। फिल्में और साहित्य दोनों समाज सीधे जुड़े हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि दृश्य होने के कारण फिल्में ज्यादा आकर्षित करती हैं, जबकि साहित्य वर्ग विशेष की पहुंच तक सीमित रह जाता है।
साहित्य और फिल्मों का ताना-बाना कई स्तरों पर अलग है। लेकिन राही मासूम रज़ा लिखते हैं- ‘सिनेमा साहित्य की एक विधा है। इस समय विचार का विषय यह है कि सिनेमा की पहुंच छपे हुए शब्द से अधिक है। उसके लिए हमारे बुद्धिजीवी कितना ही नाक-भौं चढ़ाएं, साहित्य और समाजशास्त्र जैसे विभाग फिल्म जैसी ताकतवर साहित्यिक विधा की अनदेखी नहीं कर सकते। सिनेमा की शिक्षा और समझ के लिए सिनेमा को साहित्य स्वीकार कर उसे साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल करना आवश्यक है।’
बीसवीं शताब्दी में भारत में तेजी से बदलाव हुए। भारतीय समाज लगातार खुद को नए सांचे में ढालता गया। ऐसे में सिनेमा का बदलना लाजिमी था। लेकिन इस बदलाव में सिनेमा गांव, समाज से कट कर कुछ ज्यादा ही व्यावसायिक हो गया। सीमित साधन और कम तामझाम का प्रयोग करने वाली अर्थपूर्ण फिल्में ‘कला फिल्में’ मानी जाने लगीं। तेजी से बदलते समय ने ऐसी फिल्मों को किनारे लगा दिया। हालांकि भारत जैसे विविधता से भरे देश में अब भी भावना प्रधान फिल्में ही सफल हो रही हैं। लेकिन ‘रा-वन’, ‘कृष-3’, ‘धूम-3’ जैसी फिल्मों ने हॉलीवुड की प्रतिकृति बनने की कोशिश की। इन फिल्मों में अत्याधुनिक उपकरणों के प्रयोग और उत्कृष्ट प्रस्तुति ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है। मगर तकनीकी प्रभाव के कारण फिल्मों में वह संवेदनशीलता नहीं रही, जो पारिवारिक या सामाजिक फिल्मों में देखने को मिलती है। आवश्यकता है कि तकनीक जीवन पर इतना न हावी हो जाए कि मानवीयता हाशिये पर चली जाए। आधुनिक साधनों के प्रयोग के बाद भी फिल्मों में जीवंतता बची रहनी चाहिए।
आजादी के बाद भारत को सांप्रदायिकता विरासत में मिली। सिनेमा ने सांप्रदायिकता का जबर्दस्त विरोध किया। वी शांताराम की फिल्म ‘पड़ोसी’ में हिंदू-मुसलिम एकता का संदेश दिया गया, जो वक्त की जरूरत थी। ‘बाम्बे’, ‘मिस्टर ऐंड मिस्टर अय्यर’ जैसी फिल्में इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। नब्बे के दशक में आए उदारीकरण ने सिनेमा को भी प्रभावित किया। बाजारवाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद आदि पर केंद्रित फिल्में बनीं। इस दशक में परिवार, परंपरा और संस्कृति भी केंद्र में रहे। ये फिल्में न केवल भारतीयता से जुड़ी थीं, बल्कि विदेशों में रह रहे भारतीयों को अपनी माटी की सुगंध बराबर पहुंचा रही थीं। बॉलीवुड ने प्रवेश द्वार से होते हुए वैश्विक जगत में उपस्थिति दर्ज कराई।
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