संजीव शर्मा

जनसत्ता 15 नवंबर, 2014: कुछ समय पहले बराक वैली एक्सप्रेस के चालक ने जैसे ही हरी झंडी दिखा कर सिलचर रेलवे स्टेशन से ट्रेन आगे बढ़ाई, मानो वक्त ने मिनटों में लगभग दो सदी का फासला तय कर लिया। हर कोई इस पल को अपनी धरोहर बनाने के लिए बेताब था। यात्रा के दौरान शायद बिना टिकट चलने वाले लोगों ने भी महज संग्रह के लिए टिकट खरीदे। सैकड़ों मोबाइल कैमरों और मीडिया के दर्जनों कैमरों ने इस अंतिम रेल यात्रा को तस्वीरों में कैद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वहीं ट्रेन में सवार कुछ लोगों के लिए यह महज रेल यात्रा नहीं, बल्कि खुद को इतिहास के पन्नों का हिस्सा बनाने की कवायद थी। तीस साल की सरकारी सेवा पूरी कर चुके बराक वैली एक्सप्रेस के चालक सुनीलम चक्रवर्ती के लिए भी इस मार्ग पर यह अंतिम रेल यात्रा थी। भावुक होकर उन्होंने कहा- ‘पता नहीं, अब इस मार्ग पर जीते-जी कभी ट्रेन चलाने का अवसर मिलता भी है या नहीं!’

दरअसल, असम की बराक वैली या भौगोलिक रूप से दक्षिण असम के लोगों की डेढ़ सौ साल तक ‘लाइफ लाइन’ रही मीटर-गेज ट्रेनों के पहिए अब थम गए हैं। रेल मंत्रालय मीटर-गेज को ब्रॉड-गेज में बदलने जा रहा है और इस काम को निर्बाध रूप से पूरा करने के लिए एक अक्तूबर से यहां रेल सेवाएं फिलहाल छह माह के लिए बंद कर दी गई हैं। अभी तक पूर्वोत्तर रेलवे के लामडिंग जंक्शन तक ब्रॉडगेज रेल लाइन है, लेकिन लामडिंग से सिलचर के बीच दो सौ एक किलोमीटर का सफर मीटर-गेज से तय करना पड़ता था।

यों लामडिंग से सिलचर के इस सफर को देश का सबसे रोमांचक और प्राकृतिक विविधता से भरपूर रेल यात्रा माना जाता है। इस सफर के दौरान यात्रियों को पहाड़ों की हैरतअंगेज खूबसूरती के साथ पांच सौ छियासी पुलों और सैंतीस सुरंगों से होते हुए चौबीस रेलवे स्टेशनों को पार करना पड़ता था। बताया जाता है कि तमाम तकनीकी विकास के बाद भी जिस रेल लाइन को मीटर-गेज से ब्रॉड-गेज में बदलने में अब तकरीबन बीस साल का समय लग रहा है, वहीं उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने महज पंद्रह साल में पहाड़ों को काट कर और कंदराओं को पाट कर इस रेल लाइन को अमली जामा पहना दिया था। यहां के इतिहास के जानकारों के मुताबिक 1882 में सबसे पहले जॉन बोयर्स नामक इंजीनियर ने सुरमा घाटी (बराक घाटी का विभाजन से पहले का नाम) को ब्रह्मपुत्र घाटी से जोड़ने की परिकल्पना की थी। फिर अगले पांच साल में परियोजना रिपोर्ट तैयार हुई और 1887 में तत्कालीन सलाहकार इंजीनियर गुइल्फोर्ड मोल्सवर्थ ने इस मीटर-गेज रेल परियोजना को मंजूरी दे दी। फिर 1888 से यहां निर्माण कार्य शुरू हुआ और एक दिसंबर 1903 से यहां रेल सफर शुरू हो गया।

अतीत से विकास के इस सफर में मीटर-गेज और इस पर आज के गतिशील दौर में भी कछुआ चाल से चलने वाली ट्रेनें अब संग्रहालय का हिस्सा बन जाएंगी, क्योंकि पटरियों का आकार बदलने के साथ ही यहां सब-कुछ बदल जाएगा। सिलचर स्टेशन का विकास और विस्तार होगा और शायद स्थान भी बदलेगा। कई छोटे स्टेशन कागजों में सिमट जाएंगे। कितनों की रोजी-रोटी छिनेगी और विस्तार की आंधी में कुछ के घर भी उजड़ेंगे। धीमी और सुकून से चलने वाली ट्रेनों के स्थान पर राजधानी-शताब्दी जैसी चमक-दमक और गति वाली ट्रेनें दौड़ती नजर आएंगी। बराक घाटी के साथ-साथ त्रिपुरा, मिजोरम और मणिपुर जैसे राज्य वर्षों से इस बदलाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन सदियों का रिश्ता एक पल में तो नहीं तोड़ा जा सकता। इसलिए मीटर-गेज को विदाई देने के लिए फूल मालाओं और ढोल-ढमाकों के साथ पूरा शहर मौजूद था। सभी दुखी थे और साथ में खुश भी, क्योंकि इस बिछोह में ही सुनहरे भविष्य के सपने छिपे हैं।

 

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