जाबिर हुसेन

जनसत्ता 11 नवंबर, 2014: पिछले कुछ दिनों से एक टीवी विज्ञापन में मशहूर अभिनेता शाहरुख खान अपने खास अंदाज में कहते नजर आते हैं- ‘दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं- विनर्स और लूजर्स, यानी जीतने वाले और हारने वाले!’ शाहरुख इस छोटे-से वाक्य के आगे भी कुछ कहते हैं, लेकिन उसका उल्लेख यहां बहुत प्रासंगिक नहीं। सवाल है कि जीत-हार की इस तल्ख सच्चाई के बीच शेरशाह कहां ठहरते हैं! वही शेरशाह जिन्होंने देश के किनारों को जोड़ने वाली सड़क बनाई, सड़कों पर मुसाफिरों को छांव देने वाले घने पेड़ लगाए और थके कदमों को आराम देने वाली सराय बनार्इं, जमीन और राजस्व की बंदोबस्ती के लिए ठोस व्यवस्था की। इसके अलावा, परेशानी और दर्द में डूबी आबादी को शासकीय संरक्षण भी दिया, लोगों के आंसू पोंछे। उस शेरशाह को आप क्या नाम देंगे- ‘विनर या लूजर’?

वही शेरशाह, जिसने कई लड़ाइयां जीतीं और हारीं। यानी जो ‘विनर’ भी रहा और ‘लूजर’ भी! कहते हैं, एक बार वह बिहार से बंगाल की तरफजाते हुए थोड़े समय के लिए शेखपुरा के घने जंगलों और पहाड़ी शृंखला से गुजरा था। तब उसने पहाड़ का सीना चीर कर रास्ता बनाया था और उसकी तलहटी में मीठे पानी का एक कुआं खुदवाया था। आज भी वह कुआं आबाद है और शेरशाह का नाम इस कुएं से जुड़ा हुआ है। आम लोग इसे शेखपुरा का ऐतिहासिक ‘दाल कुआं’ भी कहते हैं। लोक-कथाओं के मुताबिक, इसे ‘दाल-कुआं’ इसलिए भी कहते हैं कि इसके पानी में दाल को गलने में बहुत कम वक्त लगता है। गिरिंडा पहाड़ की तलहटी में, दो पूजा-स्थलों के बीच, दस या बारह फीट का रास्ता आपको इस ऐतिहासिक कुएं तक पहुंचा देगा। आस्था और भक्ति के महान पर्व ‘छठ’ के अवसर पर यहां तिल रखने की जगह नहीं होती। शहर-भर से हजारों महिलाएं, हर साल, पानी के छोटे-बड़े बरतन लिए इस कुएं पर आती हैं। इस कुएं के पानी से ही वे खरना-लोहंडा का प्रसाद बनाती हैं। इसी पानी से उनकी आस्था का यह पवित्र अनुष्ठान संपन्न होता है।

कब से चल रही है यह परंपरा, किसी को पता नहीं! इलाके के निवासियों और कारोबारियों, यहां तक कि पूजा-स्थलों के समर्पित पुजारियों को भी मालूम नहीं कि ‘दाल कुएं’ के पानी से ‘छठ’ का प्रसाद तैयार करने की प्रथा कब, किस शासन और समाज ने शुरू की। यह किस व्यवस्था के अधीन आरंभ हुई! इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले कुछ सहृदय पाठक जरूर बताते हैं कि 1540 ई के आसपास शेखपुरा होकर बंगाल जाते वक्त पहाड़ काट कर रास्ता बनाने वाले शेरशाह ने यहां तलहटी में यह कुआं खुदवाया था। खुद शेरशाह ने भी इस कुएं का मीठा पानी पिया था और अपने अमलदारों को इसकी देखभाल करने की हिदायत दी थी। तब से लेकर आज तक यह कुआं आबाद है। आज इसके इतिहास में आस्था और विश्वास की कुछ पवित्र कड़ियां भी जुड़ गई हैं! मेरे पुरखों की बस्ती, शेखपुरा की फिजा एकता की जिस डोर से बंधी है, उसे समझने के लिए उन पथरीले रास्तों से गुजरना जरूरी है, जहां आस्था के खूबसूरत फूल खिलते हैं।

 

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