प्रभांसु ओझा
जनसत्ता 20 अक्तूबर, 2014: किशोर कुमार की आवाज में फिल्म पड़ोसन का गाना ‘मेरे सामने वाली खिड़की में एक चांद टुकड़ा रहता है’ बहुतों को याद होगा। खिड़की में चांद के टुकड़े के रूपक की बात और है, लेकिन आज तो हमारे घरों से खिड़कियां ही गायब होती जा रही हैं। दुनिया के खुलेपन को बंद कमरों की कैद में ही पा लेने की चाहत ने हमारे धड़कते दिल को मार डाला है। हम खुद में सिमटते जा रहे हैं। यह पता नहीं कि सामने वाली दमघोंटू चारदिवारी के अंधेरों में कौन रहता है! उस कभी न खुलने वाली खिड़की के अंदर पता नहीं कितने प्यार पनपने से पहले ही मर जाते हैं और हम हैं कि कंक्रीट की जेलों को महल समझने की भूल कर बैठते हैं। सिर पर एक छत बनाने की चाह में इंसान घर पर घर बनाता गया और छतों को खत्म करने के साथ ही उस छत से दिखाने वाली दुनिया के बाहरी जुड़ाव को भी उसने खत्म कर लिया। प्यार चाहे छत का हो या खिड़की का, इसके बारे में हमारे समाज में कई तरह के किस्से हैं। एक दिल था जो दो दीवारों के बीच इस खिड़की और छत के माध्यम से धड़कता था, पर पत्थरों की गगनचुंबी इमारतों ने हमारे अंदर के इंसान को मार डाला। इमारतें जितनी ऊंची हुर्इं, हमारा कद उतना ही बौना होता चला गया।
पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन की बहस दिनोंदिन तेज होती जा रही है। अब पर्यावरण की रक्षा के लिए हरित अर्थव्यवस्था, हरित न्यायालय, हरित राजनीति जैसे मुद्दों के साथ एक ऐसी जीवन-शैली को बढ़ावा दिए जाने की बात की जा रही है जो पर्यावरण-हितैषी हो। हमारे जीने का नितांत भौतिकतावादी तरीका एक दिन सब कुछ तहस-नहस न कर दे, इसलिए ‘ईको-फ्रेंडली’ जिंदगी को अपनाने के लिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। हमारे शहरों मे आए दिन भवन गिरने से होने वाली मौतों की वजह सब जानते हैं। भवनों के भूकम्परोधी न होने के अलावा ज्यादातर भवन ऐसे हैं जहां दिन और रात का पता ही नहीं चलता। बहुत कम घरों में खिड़कियां देखने को मिलती हैं। हम नदियों और पहाड़ों की छाती चीर कर अगर ऐसे ही बड़े-बड़े भवन बनाते रहे तो एक दिन सब कुछ नष्ट हो जाएगा। सूरज की पहली और आखिरी किरण से कटी दड़बों में हमारी जिंदगी इतनी दमघोंटू हो गई है कि हम हवा के लिए प्लास्टिक के पंखों पर और रोशनी के लिए बिजली पर निर्भर होते जा रहे हैं। हड़प्पा और मुअनजोदड़ो में भवन निर्माण कला प्रकृति के बेहद करीब थी, लेकिन सभ्यता के विकास-क्रम में आधुनिक विज्ञान और तकनीकी से लैस होकर भी हम उनसे हजारों साल पीछे हो गए हैं। हम छद्म भौतिकतावाद और पूंजीवाद द्वारा बिछाए जाल में ऐसे फंसे हैं कि आगे कुआं और पीछे खाई है, एक ऐसे बाजार में खड़े हो गए हैं जहां हमने प्राकृतिक संसाधनों के साथ ही खुद को बेच डाला है।
ये गगनचुंबी इमारतें प्रलय की आंधी में चकनाचूर हो जाएं, इससे पहले हमें सचेत हो जाने की आवश्यकता है। समय की मांग है कि शहर में निर्माण प्रक्रिया को पर्यावरण के अनुकूल बनाया जाए। हम ऐसे हरित भवनों का निर्माण करें जो हमारे आंतरिक और बाहरी स्वास्थ्य को संतुलित करें। अगर पर्यावरण को दांव पर लगा कर आशियाने बनाए गए तो समूची सभ्यता को इसका खमियाजा भुगतना होगा। हमारे जीवन को गतिमान बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि घर भले छोटा हो, लेकिन छत और खिड़की का अस्तित्व कायम रहे। हमें वह शहर नहीं चाहिए, जो दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों में है- ‘इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात/ अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां!’
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