अलका कौशिक
जनसत्ता 10 नवंबर, 2014: बस्तर में उस गहराती शाम के सन्नाटे में कांगेर वैली नेशनल पार्क में तीरथगढ़ जलप्रपात देख कर अकेली लौट रही थी। सर्पीले मोड़ काटती सड़क पर जनजातीय समुदाय का एक व्यक्ति धनुष-बाण लिए जाता दिखा। उससे आंखें चार हुर्इं। फिर मैं अपनी राह, वह अपनी। हमारे पास संवाद के कई-कई आयाम होते हैं। उस रोज बेजुबान रह कर भी बहुत कुछ कहा-सुना गया था। वह शायद शिकारी रहा होगा! हाथ में बांस की एक टोकरी में छोटे-बड़े दो-चार पंछी औंंधे पड़े थे। आंखों में चमक थी और उस दिन का भोजन जुटा लेने का जोश उसके पैरों की गति में उतर आया था। मैंने गाड़ी रुकवाई। इस बीच ड्राइवर की बेचैनी देखने लायक थी। वह उस ‘खतरे के गढ़’ से जल्दी बाहर निकल जाना चाहता था और मैं अपनी सांसों में वहां की हवा को भरपूर उतार लेने पर आमादा थी!
जिस संकोच, डर और शक को लेकर निकली थी, वह किसी नदी-नाले में दफन हो चुका है। तेरह सौ किलोमीटर का सफर बस्तर में तय करने के बाद मैं इतना समझ चुकी थी कि यहां की बस्तियों में एक अकेली शहरी औरत वैसा नमूना नहीं होती, जैसी वह अपने महानगर में होती है। बारसूर के जंगल से गुजरते हुए किसी शिकारी से आमना-सामना होने पर मुस्कराहटों के सिलसिले दोनों तरफ से आगे बढ़ते हैं, किसी हाट बाजार में महुआ शराब बेचती आदिवासी महिलाएं आपको आमंत्रित करती हैं। दंतेश्वरी के मंदिर में फूलों की लड़ियां लेकर घूमती वृद्धा अपनी मोहक मुस्कान से आपका दिल लूट लेती है।
कांकेर का नाम सुन कर दिलों की धड़कनें बढ़ जाती हैं। अकेले होने का अहसास और शिद्दत से महसूस किया वहां मैंने। एनएच-43 पर मैंने एकाएक खुद को घने जंगलों से घिरा पाया, जहां शहरी सभ्यता की निशानी के तौर पर साथ चल रहे स्मार्टफोन के सिग्नल की रेखाएं धुंधलाने लगती हैं। दिल के किसी कोने में हल्की-सी चिंता की लकीर उठती है।
खैर, फिक्र से जूझते हुए कोंडागांव पहुंच गई। हाइवे के किनारे अब जिंदगी जीती दिखती है। बस्तर आर्ट, शिल्पग्राम, कुम्हारपारा जैसे नाम चौंकाते हैं। जरा ठहर कर इस शहर से बातें कीजिए, इसकी धड़कनों को सुनिए, इसके अंदाज को समझने का जतन जरूर कीजिए। हाइवे की सड़क से उतरिए और किसी भी गांव में मुड़ते मोड़ पर बढ़ चलिए। एक से एक शिल्प, मेटल आर्ट- डोकरा के उम्दा नमूने, टेराकोटा की लाजवाब कृतियां दंग करती हैं। उन्हें बनाने वाले हाथ और चेहरे देख कर आप हैरान हो जाएंगे। इंद्रावती नदी किनारे की चिकनी मिट्टी से कुम्हारपारा के कुम्हार टेराकोटा शिल्प में जैसे अपनी कल्पनाओं के रथ दौड़ाते हैं। बस्तर के ये आदिवासी अपनी मस्तहाल जिंदगी का जश्न मनाते हुए हौले-हौले, गुनगुनाते हुए कभी शिल्पों पर चित्र उकेरते हैं तो किसी पल माटी या धातु की आकृतियों को जीवंत बनाने में रमे होते हैं।
बहरहाल, ‘ट्राइबल’ और ‘बैकवर्ड’ कहलाने वाले आदिवासियों के इलाके में प्रकृति की लय-ताल के साथ जीते उस आदिवासी समाज के बीच मैंने अपने औरत होने का जश्न जी-भर कर मनाया। उस महानगरीय आतंक से मुक्त होकर जो यहां अपने शहर में कभी बस स्टैंड पर तो कभी सूनी-अंधेरी सड़कों पर घेर लेता है। न बींधती नजरें, न जिस्म टटोलते किरदार, न जबर्दस्ती नजदीकी बनाने को आतुर चेहरे…! बस एक सीधी-सच्ची जिंदगी का जश्न मनाता जनजातीय समाज। उसी मस्ती को जीकर लौटी हूं छत्तीसगढ़ से… मध्य भारत के उस इलाके से, जिसे माओवादियों से घिरा समझ कर हम कभी अपने सफर का हिस्सा नहीं बनाते। कितने मुगालते में जीने के आदी हैं हम! कुछ टटोलने से पहले ही उसके बारे में राय बनाने के हुनर में माहिर! कुछ जानने से पहले ही अपने फैसले सुनाने में अव्वल! कुछ समझने से पहले अपनी राय कायम कर लेने के उस्ताद …!
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta