वाम का काम

बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) ने एकजुट हो लड़ने का मन बनाया है। एसयूसीआइ समेत कुछ अन्य दल और संगठन भी इनसे जुड़ने को गंभीरता से सोच रहे हैं। उधर दिल्ली से खबर है कि वाम मोर्चा (माकपा, भाकपा, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक) के साथ एसयूसीआइ और भाकपा (माले) जुड़ कर एक सप्ताह (आठ से चौदह दिसंबर) तक देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिकता के विरोध और जन-समस्याओं को लेकर आंदोलन करेंगे।

संप्रति सांप्रदायिकता, फासीवाद, अफसरशाही, उग्रवाद आदि राजनीतिक मुद्दे हैं और इनके पोषक तत्त्व हैं हर क्षेत्र में असमान विकास और बढ़ती बेरोजगारी। इनसे भौतिक मुद्दों पर आधारित राजनीति से ही लड़ा जा सकता है। वामपंथियों को समझना होगा कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलिम संप्रदायवाद का समर्थन करते हुए और जातिवादी राजनीति को मान्यता देकर वे संघ परिवार की सांप्रदायिकता का सामना नहीं कर सकते। हमें याद रखना होगा कि धर्म, संप्रदाय, जाति का कोई भौतिक आधार नहीं होता, भौतिक महत्त्व होता है मनुष्य का। इसलिए सांप्रदायिकता के विरोध को बेकारी (जो उग्रवाद का एक प्रमुख कारण है), गरीबी, अशिक्षा, महंगाई जैसे प्रश्नों से जोड़ना होगा ताकि वह कुलीनतावादी नारा न रह कर मजदूर वर्गीय अंतर्वस्तु ग्रहण करे। ऐसे मसलों पर आंदोलन धर्म-जाति जैसी तमाम संकीर्ण विभाजक दीवारों को तोड़ देगा। एक नकारात्मक राजनीति का जवाब दूसरी नकारात्मक राजनीति नहीं, बल्कि सकारात्मक राजनीति ही होगी।

माकपा, भाकपा और भाकपा (माले-लिबरेशन) के बिहार में अब तक अलग-अलग चुनाव लड़ने का प्रमुख कारण सत्ता की राजनीति के लिए कम्युनिस्ट नीतियों पर वर्ग-संघर्ष के मुद्दों के बजाय तरह-तरह की सामाजिक इंजीनियरिंग का हावी होना रहा है। इसलिए कम्युनिस्टों को चुनावी राजनीति को जनपक्षीय बनाते जाना होगा। उन्हें जमानत की राशि को हटाने की मांग करनी होगी; इससे योग्य और गरीब उम्मीदवार चुनाव से बाहर हो गए। इसकी जगह एक प्रारंभिक चुनाव का प्रावधान किया जाना चाहिए। विधानसभा के लिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को अपनी पसंद के पांच बूथ पर पचास फीसद से ज्यादा मत प्राप्त करना अनिवार्य हो।

मुख्य चुनाव में भी डाले गए मतों का पचास फीसद से ज्यादा हासिल करने पर ही विजयी घोषित किया जाए, वरना फिर चुनाव करवाए जाएं दो या तीन सबसे ज्यादा मत प्राप्त करने वालों के बीच। बिहार में विधानसभा चुनाव अगले वर्ष नवंबर में होने वाले हैं। जनवरी तक इन्हें अपना उम्मीदवार घोषित कर देना चाहिए ताकि वे उम्मीदवार अपने-अपने क्षेत्रों में तय कार्यक्रम पर नागरिक आंदोलन का सूत्रपात कर उन मुद््दों से जनता को जोड़ने में सफल हो सकें।

रोहित रमण, पटना विवि, पटना

दवा के दाम

दवाइयों का मूल्य निर्धारण करने वाली सरकारी नियामक एनपीपीए (नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी) ने एक सौ आठ दवाइयों के मूल्य को फिर से निर्धारित किया है। एनपीपीए को लगता है कि दवाइयों के मूल्य में तीस-चालीस फीसद की कमी आएगी। सरकार ने जब डीपीसीओ-2013 (ड्रग प्राइस कंट्रोल आॅडर) को लागू किया था, तब भी यह कहा गया था कि सत्तर प्रतिशत दवाइयां मूल्य नियंत्रण में आ जाएंगी।

दूसरी तरफ, खुद सरकार ने नवंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय को हलफनामे में बताया कि डीपीसीओ-2013 में अधिसूचित तीन सौ अड़तालीस दवाइयों से घरेलू दवा बाजार की अठारह प्रतिशत दवाइयां ही मूल्य नियंत्रण के अंतर्गत आएंगी; इकहत्तर हजार दो सौ छियालीस करोड़ के दवा बाजार में तेरह हजार सत्तानबे करोड़ रुपए की दवाइयों पर ही सरकार निगरानी करेगी। यानी कुल दवा बाजार की बयासी प्रतिशत दवाइयों के मू्ल्य बाजार के रहमोकरम पर निर्भर है। यह दुखद है कि जिस देश की जनता अपने स्वास्थ्य बजट का बहत्तर प्रतिशत केवल दवाइयों पर खर्च करती हो, वहां की सरकार इतने बड़े क्षेत्र को निजी कंपनियों के लूट के लिए खुला छोड़ रखी है।

आशुतोष कुमार सिंह, मुंबई

इलाज का पैमाना

संपादकीय ‘दिल की बात’ (27 अक्तूबर) पढ़ी। सचमुच मृत हृदय को जीवित कर और उसे प्रत्यारोपित कर जो चिकित्सा विज्ञान ने कार्य किया है वह शिखर और संपूर्ण मानवता और मानव मेधा की उपलब्धि है। लेकिन अपने देश के संदर्भ में जिस तरह के हालात हैं उसमें तो इबोला, एड्स और कैंसर, जैसी दिल की बीमारियां तो छोड़िए, बहुत मामूली बीमारियों का इलाज सभी को बराबरी से नहीं मिल पाता, एक गरीब आदमी को वह सुविधा हासिल नहीं है, जो अमीर को है। आखिर मानव मेधा की उपलब्धियां अमीरों तक क्यों सीमित हैं। कई सरकारी अस्पतालों में ज्यादातर दवाइयां उपलब्ध नहीं होतीं, जबकि बड़े निजी अस्पतालों में दवाइयां होती हैं। राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति कम से कम इलाज के अभाव में असमय काल कवलित न हो सके।

उर्वशी गौड़, भजनपुरा, दिल्ली