गंगा को सिर्फ एक नदी के रूप में नहीं देखा जा सकता। वह जिन क्षेत्रों से गुजरती है वहां वह लोगों के संस्कार, सरोकार, आस्था और विश्वास की नदी है। गंगा से आम जनमानस बहुत गहराई तक जुड़ा है। ऐसे में गंगा को निर्मल करना उतना आसान नहीं है जितना राजनीतिक भाषणों में लगता है। उसके किनारे रहने वाले लोगों के जन्म से लेकर मरण तक अनेक ऐसे अवसर हैं जो गंगा के बिना पूरे नहीं हो सकते। इसलिए उन लोगों को जागरूक किए बिना गंगा को प्रदूषण से मुक्त करना शायद ही संभव हो।
उत्तर प्रदेश और बिहार के वे गांव जो गंगा के किनारे या आसपास बसे हैं उनके द्वारा फैलाए जाने वाले प्रदूषण में बड़ा हिस्सा अंतिम संस्कार का होता है। हिंदू धर्म में अंतिम संस्कार की अपनी रीति और नीति है। उसमें लोगों के साथ मिलजुल कर कुछ बदलाव जरूर किया जा सकता है। यह कह देने से कि गंगा में अंतिम संस्कार नहीं होगा या गंगा में प्रदूषित करने वाली चीजें डालने पर जुर्माना लगेगा, इसका कभी निदान नहीं हो सकता।
गंगा प्रदूषण रोकने के लिए सबसे जरूरी है प्रदूषण की बुनियाद पर विचार करना, उसके लिए वैकल्पिक उपाय खोजना और उसकी समुचित व्यवस्था करना। गंगा में प्रदूषण दो तरह से होता है। पहला, औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट पदार्थों को बहाने से और दूसरा,आम जनमानस के जीवन से जुड़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति से। इसी में आम लोगों की नदियों के प्रति असंवेदनशीलता भी शामिल है। जहां तक औद्योगिक प्रदूषण का सवाल है तो उसके लिए अनेक तरह के जल शोधन संयंत्र लगाए गए हैं।
उनमें से कितने काम कर रहे हैं इसका पता नहीं है। सरकार नीतियों के स्तर पर सीधे-सीधे उस मामले में सुधार कर सकती है और जितनी जल्दी करेगी उतना ही अच्छा होगा। लेकिन आम लोगों के बीच से गंगा को प्रदूषण मुक्त करना थोड़ा कठिन है। जहां तक अंतिम संस्कार की बात है, उसके भी दो तरीके हैं। पहला, जिसमें मनुष्य के शरीर को जला कर उसकी राख को गंगा में प्रवाहित किया जाता है। दूसरा, जिसमें अधजले या बिल्कुल नहीं जले शरीर को ही प्रवाहित कर दिया जाता है। प्रदूषण दोनों से होता है लेकिन बिना जला हुआ शरीर पानी को ज्यादा प्रदूषित करता है। पहले स्थिति ऐसी नहीं थी क्योंकि गंगा में अनेक तरह के जीव-जंतु होते थे जिनका भोजन मृत शरीर ही होता था और वह एक दिन में ही खत्म हो जाता था। अब स्थिति वैसी नहीं है। जब से गंगा में रसायनयुक्त पानी आने लगा है तब से उसमें रहने वाले जीवों में भारी कमी आई है। गंगा में प्रवाहित किया गया शरीर कुछ किलोमीटर तक तो बहता है फिर कहीं न कहीं किनारे लग जाता है और कई दिनों तक सड़ता रहता है। इससे आसपास रहने वाले लोगों का जीना हराम हो जाता है और पानी में जो प्रदूषण होता है वह अलग।
इसे रोकने के लिए सीधा उपाय है कि गांवों के करीब जो भी श्मशान हैं कुछ जगहों को चिह्नित करके वहां विद्युत शवदाह संयंत्र लगाए जाएं। दूसरा यह कि राख या अस्थियों को गंगा के किनारे किसी जगह पर गड्ढे में डाल दिया जाए। गंगा का प्रदूषण रोकने के लिए सभाएं बहुत हुई हैं, योजनाएं बनी हैं, पैसा भी ठीक-ठाक खर्च हुआ है, चाहे वह खाने-पीने पर खर्च हुआ हो या विद्वानों की बेनतीजा बहसों पर। इस सरकार की अभी तक की योजनाओं का कोई ऐसा व्यावहारिक पक्ष मुझे दिखाई नहीं देता जिससे बहुत संतोष मिले। आगे आने वाले समय में अगर ये योजनाएं आम जनजीवन के अनुकूल बनती हैं तो अच्छा है वरना दिल्ली से ही गंगा-गंगा रटने से कुछ नहीं होगा।
संतोष कुमार राय, मदनपुरी, नई दिल्ली
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