फिलहाल कोरोना जैसी बीमारी से जूझते लोगों के लिए इसका कोई अस्थायी इलाज भी नहीं, मिल पाना बड़ी चिंता का विषय है। भले ही लोग बाजारों में घूम फिर रहे और अपने काम कर रहे हैं, मगर बीमारी के नाम का एक अज्ञात भय मन में व्याप्त है। जैसी कि खबरें आ रही हैं, अगले नौ माह में आबादी के बीस लोगों को कोरोना का टीका मुहैया हो जाएगा, जो अगले दस सालों तक प्रभावी रहेगा।
निश्चित तौर पर यह राहत की बात है। ऐसे में लोगों को चाहिए कि वे जब तक टीका आए, तब तक सतर्क रहें और नियमों का मुस्तैदी से पालन करते रहे, क्योंकि सतर्कता में ही सुरक्षा निहित है। लापरवाही संक्रमण को ही निमंत्रण देगी।
’अमृतलाल मारू ‘रवि’, धार, मप्र
बदलता परिवेश
हमारे देश में महीने कोई न कोई त्योहार देश के विभिन्न प्रांतों में मनाया ही जाता है। हाल ही में देश में दशहरा (विजयादशमी) का त्योहार मनाया गया, लेकिन कोरोना के चलते इस वर्ष त्योहार की चमक फीकी लग रही है। हालांकि इस वर्ष कोरोना ने लोगों को एक-दूसरे से दूर कर रखा है, लेकिन यों भी लोगों के बीच की दूरियां पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ी है।
खासतौर पर गांवों का मिलजुल कर रहने वाला माहौल अचानक ही लुप्त हो गया है। कभी गांवों में त्योहारों की तैयारियां कई सप्ताह पहले से ही शुरू हो जाती थीं और गांव के बच्चे-बूढ़े सभी सौहार्दपूर्ण तरीके से एक दूसरे से मिलते जुलते थे। त्योहार के दिन बच्चे और युवा गांव के बुजुर्गों का आशीर्वाद लेने जरूर जाते थे और यह प्रथा सम्मान और अनुशासन का द्योतक हुआ करती थी। लेकिन आज गांवों में लोग केवल अपने घर तक ही सीमित हो गए हैं। त्योहारों के दिन भी मन की कड़वाहट लिए लोग एक-दूसरे से मिलने से कतराते हैं।
गांव के बुजुर्ग कभी शहरों को अजनबियों की संज्ञा देते थे और ग्रामीणों की उदारता और व्यवहार कुशलता पर गर्व करते थे। लेकिन यह परिदृश्य अब बदल चुका है। ग्रामीण लोगों के मन में भी ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होने लगा है और शहरों की चकाचौंध ने ग्रामीणों की महत्त्वाकांक्षाओं को मार्ग से भटकाने का काम किया है। गांवों को देश की रीढ़ माना जाता है।
लेकिन कुछ निहित स्वार्थी तत्त्वों ने गांवों में रहने वाले कमजोर तबकों के दुख को नहीं समझा और उनके अधिकारों का हनन किया या फिर ऐसा होने दिया। अगर गांवों में एकता का ह्रास होता रहा तो निश्चित ही इसकी आंच राष्ट्रीय एकता पर भी आएगी। देश को संपन्न और सबल बनाए रखने के लिए सामाजिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
’शिवम सिंह, बिंदकी, फतेहपुर, उप्र