हमारा देश ने संवैधानिक तरीके से 26 जनवरी 1950 को असल आजादी का स्वाद चखा था, जिस दिन देश में अपना संविधान लागू हुआ था। उस दिन ही हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश के रूप में संपूर्ण विश्व के समक्ष उभर कर सामने आया।
पर आज सही मायने में बात करें तो यह सवाल उठता है कि जिस संविधान ने हम लोगों को बोलने की आजादी दी है, अपने व्यक्तित्व को लोगों के सामने उजागर करने की आजादी दी है, वह आखिर क्यों छिनती जा रही है। हालत यह है कि आज अपनी बात कहना देशद्रोह के समान अपराध हो गया है। व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता पर हमले हो रहे हैं।
देश में एक तरह के भय का वातावरण बन गया है। राजनीतिक पार्टियां संविधान के साथ जिस तरह का खिलवाड़ कर रही हैं, वह चिंता पैदा करता है। खौफ का आलम तो यह है कि आज सरकार की गलत नीतियों पर भी डर के मारे लोग बोल नहीं पा रहे हैं। आज सरकारें सही गलत जो भी कानून बना रही हैं, उनके पीछे मकसद लोगों की आजादी को कुचलना है।
जनता को लोकतांत्रिक शक्ति का उपयोग करने से रोका जा रहा है। भ्रष्टाचार के मामले में तो देखें तो आज भी एशियाई देशों में घूसघोरी में भारत पहले स्थान पर है। देश में अपराध बढ़ रहे हैं, करोड़ों लोग बेरोजगार हैं, किसान मजदूर परेशान हैं। जब इतने ज्यादा संकट हैं और सरकारें बेपरवाह हैं तो सवाल है कि क्या हम सच्चे लोकतंत्र में रहे हैं?
’सचिन आनंद, खगड़िया (बिहार)
मुश्किल में किसान
स्वाधीन भारत से पहले और उसके बाद एक लंबी अवधि बीतने के बाद भी भारतीय किसानों की दशा में सिर्फ उन्नीसझ्रबीस का अंतर ही दिखाई देता है। जिन अच्छे किसानों की बात की जाती है, उनकी संख्या मामूली है। बाकी छोटे और सीमांत किसानों का हाल किसी से छिपा नहीं है।
कृषि प्रधान राष्ट्र भारत में लगभग सभी राजनीतिक दलों ने कृषि विकास और किसानों के कल्याण के प्रति घोर उपेक्षा बरती है। देश में जिस बड़ी संख्या में हर साल किसान जान दे देते हैं, उसका बड़ा कारण यही है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किसानों को भारत की आत्मा कहा था।
बावजूद इसके किसानों की समस्याओं पर राजनीति करने वाले ज्यादा और उनकी समस्याओं की तरफ ध्यान देने वाले कम हैं।भारत में प्रति वर्ष पंद्रह हजार से ज्यादा किसानों की मौत का कारण फसल के लिए गए बैंक कर्ज को न चुका पाना है। इस दबाव में किसान आत्महत्या कर लेते हैं।
पिछले बीस वर्षों में लगभग तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। बढ़ती महंगाई भी किसानों के लिए संकट खड़े करती आई है। इसका सीधा नुकसान किसानों की स्थितियों पर पड़ता है। कृषि और किसान कल्याण को लेकर जब हम ठोस रणनीति की बात करते हैं तो उनमें सबसे पहले छियासी फीसद लघु और सीमांत किसानों की बात आती हैं, जो लगातार हाशिए पर जा रहे हैं।
यदि भारतीय परिदृश्य में कृषि और किसानों का कल्याण सुनिश्चित करना है तो सबसे पहले इन छोटे और सीमांत किसानों को ध्यान में रख कर रणनीति और कार्य योजना तैयार करनी होगी तभी कुछ अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। किसान की बदहाली के दो कारण मुख्य हैं।
पहला, भारत में लगभग छोटे और सीमांत किसानों के पास एक एकड़ से भी कम कृषि योग्य भूमि है। लिहाजा जोत का आकार छोटा होने के कारण उत्पादन लागत बढ़ती जाती है, लेकिन उसका मूल्य नहीं मिल पाता है। ऐसे में किसान को घाटा सहना पड़ता है।
दूसरा कारण यह है कि भारतीय कृषि मानसून पर निर्भर रहती है, जिससे पानी की कमी या ज्यादती की वजह से फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे में कृषि प्रधान देश भारत में खेती किसानी के क्षेत्र में दूरगामी नीतियों के साथ ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
’रूबी सिंह, गोरखपुर