वक्त कब हाथ से फिसल जाता है, कोई समझ नहीं पाता पर उसके बीतने के बाद का पछतावा सबको यह एहसास जरूर दिला देता है कि कुछ पीछे छूट गया है। अड़सठ वर्ष पहले हमने जो आजादी पाई थी, लगता है समय के साथ वह कहीं धुंधला-सी गई है।

सांप्रदायिकता का दानव आज तबाही की मशाल पकड़े खड़ा है। हम अब भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि विकास का नारा महज नारा है, वास्तविक विकास से उसका कोई सरोकार नहीं है। अजीब से आत्मगौरव की ग्रंथि से पीड़ित हैं हम। जातीय जनगणना के आंकड़ों से भी हमें कोई खास फर्क नहीं पड़ा, तभी तो प्रधानमंत्री लालकिले से कह गए कि सरकारी व्यवस्था के प्रति विश्वास की स्थिति बनी है।

असल में यह विडंबना की स्थिति है। आखिर कब तब ‘गरीबों की अमीरी’ का जश्न मनेगा? कभी तो वह दिन आए जब गरीबी से हमें आजादी मिल पाए। दुष्यंत कुमार ने कहा था- ‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही/ हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।’ ीदुख के साथ कहना पड़ रहा है कि वह आग कहीं दिखती नहीं।

सुप्रिय प्रणय, दिल्ली विश्वविद्यालय

 

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