‘बेटी का हक’ (संपादकीय, 13 अगस्त) पढ़ा। इस विचार से सब सहमत होंगे कि समाज बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी हक नहीं देना चाहता। सामाजिक न्याय, लैंगिक समानता जैसे मुद्दों पर हमें दो मोर्चों पर लड़ना पड़ता है। पहला है, कानून बना कर विसंगतियां दूर करना और दूसरा है रूढ़िवादी समाज की सोच बदल कर वंचितों को सचमुच में हक दिलवाना। वोट बैंक की राजनीति के चलते रूढ़िवादी समाज के खिलाफ कानून की राह पर चलना कितना मुश्किल है, यह हम अक्सर अदालतों में संवेदनशील मामलों में देखते रहे हैं। दरअसल, कानूनन हक दिलवाने से ज्यादा मुश्किल काम है बदलाव की सामाजिक स्वीकार्यता।

जिस समाज में बेटे की चाह में बेटियां पैदा की जाती हों, प्रतिकूल लिंग अनुपात हो, प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण और भ्रूण हत्याएं होती हों, बेटियां जन्म से ही पराया धन मान कर लैंगिक भेदभाव झेलती हों, वहां बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हक दिलवाने के लिए रूढ़िवादियों से एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

इतिहास में यह बात दर्ज है कि बेटियों के हक के लिए हिंदू विवाह अधिनियम को कानूनी शक्ल देने और उसे स्वीकार कराने तक के मामले में इसे तैयार करने वालों को कितनी जद्दोजहद झेलनी पड़ी थी, विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन वैसे लोगों के पांव नहीं डिगे, इसलिए आज सफर यहां तक पहुंच सका है। भविष्य की लड़ाई भी ईमानदार प्रयासों पर ही निर्भर है।
’बृजेश माथुर, बृज विहार, गाजियाबाद